हम किस देश के वासी हैं….
शैलेश तिवारी
शीर्षक पढ़कर …. दिमाग में उस मशहूर गाने की पंक्तियां कौंध सकती हैं…. जिसके बोल थे … हम उस देश के वासी हैं… जिस देश में गंगा बहती है…। हालांकि ये बात जुदा है कि… अब उस गंगा में लाशें भी बही हैं…..। उसके किनारों पर लाशें दफन भी हुई हैं…. उन दफन की गई लाशों से कफन भी चुराया गया है…।
खैर …. हमारा मुद्दा यह नहीं है….. चर्चा यह है कि हम किस देश के वासी हैं…? आज आपको हम लोकतंत्र के उस सफर की सैर कराते हैं… जो भारतीय लोक प्रतिनिधित्व कानून से …. पृथक रूप से संचालित हो रहा है। कहने को देश के आम चुनावों पर कड़ी और पैनी नजर बनाए रखने के लिए चुनाव आयोग है, लेकिन उसकी भूमिका पपेट शो की कठपुतली से मिलती जुलती हो गई है, जिसको लेकर समय समय पर सवाल तो उठते रहे लेकिन जवाब …. कोई भो नहीं मिल पाया…। इस पॉइंट को भी तिलांजलि देकर लोकतंत्र के चौथे प्रहरी की सजगता की चर्चा करते हैं… जिसे पश्चिमी देशों में वॉच डॉग भी कहा जाता है। हाय रे किस्मत…. यह वॉच डॉग विज्ञापन की हड्डी – बोटी के चक्कर में अपने किरदार से उलट भूमिका का निर्वाह कर रहा है। ये बात भी अब कोई रहस्य नहीं रह गई कि इस भूमिका का निर्वाह सबसे ज्यादा इलेक्ट्रॉनिक मीडिया निभा रहा है…। फिर भी कुछ हद तक प्रिंट मीडिया और बहुत कुछ सीमा पार करता सोशल मीडिया सरकार को निशाने पर लेने से नहीं चूक रहा है… फिर भी जब कभी चुनाव की बात होती है तो उसकी चर्चाओं में भी नरेंद्र मोदी का विकल्प विपक्ष में तलाश करने की बहस होती है।
मजे की बात यह है कि देश के सामने व्यक्तिवाद को छोटा मानने वाला राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी अपने मौन को मुखरता से ओढ़े हुए नजर आए तो आश्चर्य घनघोर हो जाता है…।
अभी तक की पृष्ठभूमि से यह समझने में आसानी होगी कि हमारे लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम में मतदाता को विधायक या लोकसभा सांसद चुनने का अधिकार मिला हुआ है। देश या प्रदेश का वोटर सीधे प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री नहीं चुन सकता। इसका कारण यह हो सकता है कि कोई भी व्यक्ति खुद को देश से बड़ा स्थापित नहीं कर पाए ।
अमेरिका के नागरिक अपने राष्ट्रपति का सीधे चुनाव कर सकते हैं लेकिन हम भारतीयों को यह अधिकार हमारे कानून नहीं देते हैं। सरलता से कहा जाए तो हम विधायक या सांसद बेहतर से बेहतर चुनें और फिर वह हमारे प्रतिनिधी अपना नेता चुनें, जिसे पीएम या सीएम के रूप में पद और गोपनीयता की शपथ संवैधानिक तरीके से दिलाई जा सके।
यहीं पर सवाल उठता है कि क्या ऐसा हम कर रहे हैं..? जवाब नहीं में आना तय है। हमारे दिमाग को चालाक , होशियार, अपने स्वार्थ सिद्धि में कुशल नेताओं ने ऐसा हैक किया है कि हम अपना मूल अधिकार ही भूल गए। हम भारतीय वोटर्स को अमेरिकी वोटर्स की तरह इस्तेमाल किया जाने लगा। नतीजा यह हुआ कि विधायक अथवा सांसद की जनता के प्रति जवाबदेही लगभग नगण्य हो गई। जैसे कोरोना की महामारी का ही उदाहरण लें अनेक शहरों में वहां के विधायक और सांसद की गुमशुदगी के पोस्टर खबरों की सुर्खियां बनें। अफसोस हुआ कि आपदाकाल में तो इनकी ड्यूटी जनता के लिए बनती है, ये ऐसे समय में किस खोह या गुफा में ध्यानमग्न रहे?
अब ईमानदारी से विचार किजिए… आपने उसे वोट दिया ही कब था? जो वह आपकी सेवा में आता..? आपने तो वोट प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री के चेहरे को दिया तो आपके बीच आने की जिम्मेदारी भी उनकी ही बनती है। इसलिए हम विधायक या सांसद द्वारा किये जाने वाला मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री चुनने का काम न करें । हमारा काम है योग्य विधायक या सांसद चुनना । उनका ही चुनाव करें अन्यथा एक और बुरे नतीजे की तरफ भी नजर डाल लें कि वर्तमान में 543 लोकसभा सांसदों में से दो सौ से ऊपर आपराधिक रिकार्ड वाले सांसद, संसद में हमारी अगुवाई कर रहे हैं। जिन्होंने अपनी जान बचाने के लिए राजनैतिक दलों की शरण ली और राजनेताओं ने उन्हें अभयदान दिलवा दिया।
इसीका एक नतीजा यह भी होता है कि इस तरह के प्रतिनिधि खुद को बचाने के लिए सत्ता का साथ पाने में दल बदल करने में कोई हिचकिचाहट महसूस नहीं करते हैं। सरकार में कोई पार्टी आये हमारे नुमाइंदे वही चेहरे होते हैं जो चेहरे सरकार से बेदखल की गई पीछे वाली पार्टी में हुआ करते थे। इसका एक नतीजा यह भी होता है कि अगर वह विधायक या सांसद अपनी मर्जी से सत्ताधारी पार्टी के साथ न आए तो सत्ता में बैठे लोग तमाम संवैधानिक संस्थाओं का बेजा इस्तेमाल करते हुए उन्हें डरा कर अथवा लालच देकर अपने साथ कर लेते हैं।
जिक्र इस बात का करना भी लाजिमी हो जाता है कि भारतीय मतदाताओं को व्यक्ति के प्रोपेगण्डा की चकाचौन्ध से प्रभावित कर देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था को अधिनायकवाद की तरफ धकेल दिया जाता है फिर नतीजे में यही होता हैं कि व्यक्तिवाद हमारे राष्ट्रवाद पर हावी होकर गरीब जनता को और गरीब तथा अमीरों को और अमीर बनाने की दिशा पकड़ लेता है। इस अधिनायकवाद का एक नतीजा देश 26 जून 1975 को घोषित किए गए आपातकाल के रूप में झेलने को मजबूर हो जाता है तो वर्तमान में कोरोना के आपदाकाल काल में स्वास्थ्य सेवाओं के चरमरा कर ढह जाने पर अपने लोगों को बगैर ऑक्सीजन के मौत के आगोश में समाते हुए देखने को भी बेवश होता है।
मौत के आंकड़े छिपाने के खेल को मौन होकर देखता है तो बढ़ती महंगाई , बेलगाम बेरोजगारी, ध्वस्त अर्थव्यवस्था आदि के कुपरिणाम भो भोगने पड़ते हैं। सारांश केवल यही कि जब बात समग्र राष्ट्र की हो तो व्यक्ति को गौण करना ही होगा, इसके लिए हम अपनी लोकतांत्रिक व्यवस्था अनुसार ही अपने प्रतिनिधि का चयन करें , न कि किसी नायक का जो अधिनायक बनने की संभावना को जन्म देता हो। फिर गर्व से कहें हम उस देश के वासी हैं जिस देश में अपना प्रतिनिधि चुना जाता है। उस देश के नहीं जहां राष्ट्र नायक का चुनाव जनता करती है।