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कहाँ मिलेगा ऐसा गांव रे….

 

 

[mkd_highlight background_color=”” color=”red”]होमेन्द्र देशमुख[/mkd_highlight]

 

कहाँ मिलेगा ऐसा गांव रे
जहां कोयल के गीत
और पीपल की छांव रे ।
कहाँ मिलेगा ऐसा गांव रे ।।

डाल डाल जहां पंछी मिले
खेतों में हरियाली ,
फूलों की डाली-धान की बाली
बूढ़े बरगद के बाहों में डंडा पिचरंगा ,
खेलूं जहां धूप और छांव रे ।
कहाँ मिलेगा ऐसा गांव रे ।।

गलियों में बचपन ,घाटों में यौवन
पगडंडियों में बीते वो मधुबन सा जीवन
कैसे बताऊं क्या उसका था नांव रे ।
कहाँ मिलेगा ऐसा गांव रे ।।

अमराई की ठंडक ,जामुन की बारिश ।
सरसों की क्यारी , धान के खरिहारी ।
होली के फगुआ ,दीवाली का मेला
अल्हड़ पनिहारिन , सजे पायल उसी पांव रे ।
कहाँ मिलेगा ऐसा गांव रे ।।

मिट्टी का रस्ता झोले का बस्ता ,
स्कूल की घंटी मास्टर जी की सन्टी
किसको पड़ी ज्यादा कोई सच तो बताव रे ।
कहाँ मिलेगा ऐसा गांव रे ।।

कंचे या भौंरा , बेला-कुबेला
नदिया के फेरा पानी का रेला
चलती थी दो चार अपनी
भी नाव रे ।
कहाँ मिलेगा ऐसा गांव रे ।।

महुआ के इत्र
जहां पंछी थे मित्र
मिट्टी था चंदन बुजुर्गों का वंदन
गाय जहां माता
पखारुं जिसके पांव रे ।
कहाँ मिलेगा ऐसा गांव रे ।।

हलकू संग ईद
जुम्मन संग होली की गेर
मिट्टी के बरतन बदले में अनाज की ढेर
काकी की बछिया दूध की थी नदिया ।
कोई बनाए खीर कोई सिवइयां
भरमा गये सारे जब आया चुनाव रे ।
कहाँ मिलेगा ऐसा गांव रे ।।

जाते थे शहरों को मिट्टी से सने रस्ते
मिलते थे जहां रिश्ते-नाते मोल सस्ते
तरक्की के सपने विकास के फरिश्ते
आये थे पिटारे लेकर
उसी बाट मेरे गांव रे ।
कहाँ मिलेगा ऐसा गांव रे ।।
मिलनी थी आजादी हो गई बरबादी
लगते थे अपने टूटे सब सपने
मोरों के डाल पर उल्लू का डेरा
बिजली के लट्टू चांदनी का लुटेरा
खेलूं चांद रात में अब कैसे धूप छाँव रे ।
कहाँ मिलेगा ऐसा गांव रे ।।

शिक्षा की शाला – ये मैं क्या सीख डाला
गोद तेरा छोड़ा , छोड़ा घाट और शिवाला
शहरों की ओर फिर भटक गया पांव रे..
कहां मिलेगा ऐसा गांव रे ।।

शहरों की छानी ख़ाक रिश्तों को रखा ताक
मां का इंतज़ार ,बूढ़ा बाप है बीमार ।
लगती थी अपनी ,बुलंद ये इमारतें
आया थपेड़ा, न दिन कटे न रातें ।
सड़कों की जगमग से भला, वो गलियों का अंधेरा।
रपटे जो कदम , कंधा थामे मेरा ।
रोता हूं रात दिन क्यों छोड़ा गांव रे..
कहाँ मिलेगा ऐसा गांव रे ।।

सींचता था खेत मैं अपना पसीना
कंधे पर अभिमान गांव का – तन कर चलता सीना
चाकरी में शहर के ,मुहाल हो गया जीना
लौट आऊंगा चाहे छाले हो पैरों में , घर घर मरहम लगेगा मेरे घाव रे ..

कहाँ मिलेगा ऐसा गांव रे
कहाँ मिलेगा ऐसा गांव रे ।।

 

आज बस इतना ही……..

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