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घर में बिराजे गजानन पर इस बार कोरोना से बचाने की भी जिम्मेदारी

 

 

[mkd_highlight background_color=”” color=”red”]होमेंद्र देशमुख[/mkd_highlight]

 

 

”कितनी उम्मीदे बंध जाती हैं
तुमसे.., तुम जब आते हो
अब के बरस देखें
क्या दे जाते हो, क्या ले जाते हो ।
अपने सब भक्तो का तुम को ध्यान रहे..
मेरे दुःख से तुम कैसे अनजान रहे…
मेरे मन मंदिर में तुम भगवान रहे,
मेरे दुःख से तुम कैसे अनजान रहे…”

विघ्नहर्ता गणेश जी की हम किसी भी अनुष्ठान में प्रथम पूजा करते हैं ,इसलिए कि हमारी पूजा, आराधना और अनुष्ठान सफलता पूर्वक सम्पन्न हो जाए । अर्थात जिनकी कृपा बिन हम दूसरे सुर-असुर , देवी-देवता, नर-नारी की कृपा और आशीर्वाद भी प्राप्त नही कर सकते ।
ऐसे हैं हमारे लंबोदर.. और जिनके जन्म का उत्सव है ,गणेश उत्सव…!

लोकमान्य तिलक ‘महाराष्ट्र केसरी’ कहलाते थे । संस्कृत में केसरी अर्थात ‘शेर’. महाराष्ट्र का शेर .. आपको बताते चलूं – घरों में गणेश पूजा की परंपरा सालों से है , बल्कि सदियों से भी होगा । उसे तिलक ने शुरू नही किया , तिलक ने तो गणेश जी को घर से निकालकर पूजा के सार्वजनिक पंडालों में पूजा । इसके लिए उन्हें बड़ी मशक्कत करनी पड़ी । इस पूजन को उन्होंने उत्सव बनाया । समाज सुधारकों की धरती महाराष्ट्र के श्री तिलक महान स्वतंत्रता सेनानी ,पत्रकार और संपादक रहे । ‘केसरी’ और ‘मराठा’ नाम के दो अखबारों को तिलक जी ने आरम्भ किया था , जिसमे ‘केसरी’ मराठी भाषा का तो ‘मराठा’ अंग्रेजी का अख़बार था । 1880 में तिलक ने पुणे में एक बड़े इंग्लिश स्कूल की स्थापना भी की थी ।

जिस सार्वजनिक मेलमिलाप , युवकों का संगठन और एकता के उद्देश्य से तिलक ने सार्वजनिक गणेश पंडालों में उत्सव को प्रारंभ करवाया आज एक महामारी ने इसी पंडाल का परदा गिरवा दिया । मेलमिलाप के अवसर, सार्वजनिक गणेश उत्सव में यही मेलमिलाप कोरोना जैसी महामारी का सबसे बड़ा उत्प्रेरक और खतरे का तत्व बन गया है ।

हमारे घर भी कई सालों से गणेश जी बिराजते रहे हैं । गांव वाले घर के बाहरी बैठक कक्ष में लकड़ी के बने, परमानेंट ,चार स्तंभों वाले मंदिर नुमा एक मंडप में गणपति की स्थापना होती और हम बच्चों का पूरा महीना गणेश जी के उस मंडप के इर्दगिर्द बीतता । क्योंकि स्थापना के 15-20 दिन पहले से ही गांव के कुम्हार के घर बन रहे गणेश जी के विभिन्न आकार-प्रकार ,बड़े- छोटे ,रंग-बिरंगे, बैठे-लेटे मूर्तियों को रोज स्कूल आते जाते निहारते और फिर स्थापना से विसर्जन के बीच , झांकी सजाने, पूजा करने और किसम किसम के प्रसाद के आनंद में बीत जाते । सबसे ज्यादा आनंद और तृप्ति तो शक्कर मिले खीरे के प्रसाद और उसके मीठे पानी को पीने में आता ।

आज से 40 साल पहले जब मेरा छोटा भाई महज 4 साल का था , छत्तीसगढ़ के मेरे पैतृक गांव वाले घर के बैठक कक्ष में स्थापित गणेश जी की छोटी सी प्रतिमा को अपने नन्हे हाथों से उठा कर अपने कोमल कदमों के बल आंगन में ले आया और घर के बड़ों को शिकायत करने लगा कि देखो ‘मेले गणेश को किसी ने बांध दिया है ,अब वह कैसे चल पाएगा ,अपने हाथों से कैसे लड्डू खा पाएगा ।’
वह घर के बड़ों से यह मांग करने लगा कि इसकी रस्सी को खोल दो और इसे आजाद कर दो । दरअसल, गणेश जी को जो स्थापना के समय जो ‘जनेऊ’ पहनाया गया था उसे वह किसी की साजिश और गणेश जी को बांधना समझ बैठा था । और अब वह उस जनेऊ को निकाल फेकने की जिद्द कर रहा था ,और अंततः उस जनेऊ को उसने स्वयं खींच खांच कर निकाल फेंका । मेरे घर उन दिनों तवा रेकॉर्ड प्लेयर का मोटर निकाल कर गणेश जी की मूर्ति के पीछे घूमता चक्र लगाया जाता था । रंगीन बल्ब और झालर लाइट की लड़ और तोरण कागज के तिकोनिया पताकों से सजे कमरे का माहौल ,मन मे खुशियों के उत्सव का माहौल देता । समय और उम्र के हिसाब से घर मे 10 साल की उम्र होते होते मुझे भी इस परंपरा के नेतृत्व की जिम्मेदारी मिली । खब्बू प्रवृत्ति होने के कारण , स्थापना के लिए चतुर्थी वाले आधे दिन का उपवास सबसे भारी पड़ता । रोज आरती के पैसे गिनना और प्रसाद का चयन करना मन मे आत्म विश्वास भर देता ।
हालांकि घर का उत्सव भी किसी सार्वजनिक पंडाल से कम यह भी नही होता । घर के सारे लोग उत्सव में अपनी अपनी भूमिका निभाते हैं । गृहणियां मोदक और दूसरे प्रसाद-पकवान बनाती हैं तो मूर्ति लाने से लेकर विसर्जन तक की व्यवस्था घर के बड़े पुरुष वर्ग करते हैं । इसलिए घर मे बिराजे गणेश जी भी परिवार को उत्सव और आनंद के एक ही धागे में पिरोने में बड़ी भूमिका निभाते हैं ।

बाद में मेरे,शहर में आने के साथ, घर के बजाय पंडालों में हम गणेश जी बिठाते । मुहल्ले के रसूखदार लोग ट्रक मंगाते और हम गाजे बाजे के साथ उस मूर्ति का नदी में विसर्जन कर आते । नदी देखने का हमारा यह साल भर का सुनहरा मौका भी होता । गणेश जी का यह उत्सव मुख्यतः महाराष्ट्र में वृहद स्तर पर मनाया जाता था । महाराष्ट्र सीमा और संस्कृति से जुड़े होने के कारण इंदौर और राजनांदगांव जैसे संयुक्त मप्र के शहरों में यहाँ के दूसरे शहरों से गणपति उत्सव की कुछ ज्यादा ही धूम होती । गणेश जी के मूर्ति स्थापना और उपासना का यह उत्सव असल मे बाल और युवा मन मे संस्कार के बीजारोपण और पल्लवन का अवसर होता है । घर मे यह उत्सव सदस्यों को आपस मे जोड़ता है तो बाहर समाज मे सबके दिलों को जोड़ता है । चंदा मांगने वाली टीम में मैं इसलिए चिपक जाता कि मुहल्ले के सारे घरों में जाने का दरवाजों पर दस्तक देने का अवसर और सौभाग्य पा सकूं । एक बार गणपति विसर्जन के समय हमारे गणेश मण्डल के बड़े भैया संजय पांडे ने ट्रक पर लगे माइक से गणेश जी पर एक फिल्मी गाना गाया तो मेरे मन ने इस विघ्नहर्ता ,श्री गणेश जी की स्थापना ,उनके विराजने, पूजन और विसर्जन के उत्सव का मर्म वास्तविक में समझ पाया , कहने को अब मैं भी काफी बड़ा हो चुका था ….गणेश जी की स्तुति का वह गीत आज के कोरोनकाल में फिर सार्थक बन पड़ा है –

“आना जाना जीवन है
जो आया कैसे जाए न
खिलने से पहले ही लेकिन
फूल कोई मुरझाये न
न्याय अन्याय की कुछ पहचान रहे
मेरे दुःख से तुम
कैसे अनजान रहे
अपने सब भक्तों का
तुमको ध्यान रहे
मेरे दुःख से तुम
कैसे अनजान रहे ..

‘गणपति बप्पा मोरया”

 

आज बस इतना ही…!

 

                               ( लेखक वरिष्ठ वीडियो पत्रकार है )

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