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अनमोल जान दे के मिली है मुझे ये कब्र,  कीमत तो देखिए जरा दो गज जमीन की

-कविता सुनाते-सुनाते माणिक वर्मा की उम्र दस साल और बढ़ गई ! 

( कीर्ति राणा)
अस्वस्थता के चलते काव्य मंच के परिदृश्य से लगभग ओझल हो गए सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार माणिक वर्मा से जब कविताएं सुनाने का आग्रह किया तो बीते छह दशक के उन्हें कई किस्से भी याद आए और एक के बाद एक कविता-गजल सुनाते गए।फिर खुद ही बोले कई वर्षों बाद मैंने तो इत्मीनान से सुनाया ही, उससे बड़ी बात यह कि आप सब ने इतने प्रेम से सुना तो मुझे लग रहा है मेरी उम्र दस साल और बढ़ गई, बड़ी ताजगी महसूस कर रहा हूं।
खंडवा में जन्मे नौकरी-पारिवारिक विवाद के कारण हरदा में जा बसे माणिक वर्मा अब इंदौर में ही न्यायिक सेवा से जुड़े पुत्र आरके वर्मा के साथ संपत्त फार्म क्षेत्र में रहते हैं।कवि सरोजकुमार के आग्रह पर वे ‘इराक’ में आए और जब बिना डायरी-कागज के मुक्तक, कविताएं, गजल, लंबी कविता सुनाते रहे तो मानना पड़ा कि  शरीर अस्वस्थ हुआ है लेकिन स्मृति पटल पर शब्द धुंधले नहीं हुए हैं।या यूं कहा जाए कि दो सहयोगियों के सहारे मंच पर पहुंचने वाले कवि भी मंच-माईक-श्रोता वाले त्रिवेणी संगम में डुबकी लगाने के लिए किसी किशोर के समान चंचल हो जाते हैं। याद आता है मार्च 2015 की रात समाजवादी सुभाष खंडेलवाल ने अपने प्रिय कवि नीरज को बिचोली मर्दाना प्रगति विहार वाले अपने निवास पर आमंत्रित किया था।उस रात सुभाष भाई ने नीरज के दीवानों को भी उन्हें सुनने की दावत दी थी।तेज बारिश तो थम गई थी लेकिन खुद नीरज सर्दी-खांसी-जुकाम से ऐसे पीड़ित थे कि गला साथ नहीं दे रहा था लेकिन माईक सामने आया, शुरुआत में उन्हें बोलते वक्त परेशानी हुई फिर पूरे डेढ़ दो घंटे इस आग्रह के साथ सुनाते रहे कि ये ताजी रचनाएं भी सुन लो, लगा ही नहीं कि ये वही नीरज हैं जिनका गला दो घंटे पहले बुरी तरह चोक था। इंदौर में यह उनका अंतिम काव्यपाठ रहा।
माणिक वर्मा के हाव-भाव, शारीरिक अस्वस्थता देखकर लग नहीं रहा था कि उन्हें रचनाएं याद होंगी सा सुना भी सकेंगे।उनका सुनाया पहला शेर ही मुशायरा लूटने जैसा साबित हुआ। कमिश्नर ऑफिस परिसर वाले इंडियन कॉफी हाउस के उस हॉल में सुनने वालों की वाह वाह की बारिश में वो सराबोर हो गए। शेर का अंदाज इस तरह था-
अनमोल जान दे के मिली है मुझे ये कब्र, 
कीमत तो देखिए जरा दो गज जमीन की। 
फिर एक के बाद एक शेर कहे-
जब मोम था तो मुझको जलाते रहे सभी, 
पत्थर बना तो मुझे पूजने लगे सभी। 
खुद मेरा जिस्म ही मुझे, लगने लगा है कब्र
जिस रोज मैंने मारा है, अपने जमीर को
बीच बीच में कवि सरोज कुमार उनसे बतियाते जा रहे थे और पूछ रहे थे ये सब ताजी रचनाएं हैं या….माणिक बोले सब इन दिनों ही लिखी हैं, मंच पर तो तब भी लोग वही ‘मैं और मांगीलाल’ जैसी रचनाओं की ही फरमाइश करते थे।
उन्हें ग्वालियर के कवि (स्व) प्रदीप चौबे की ‘आलपिन’ भी याद आई कि कैसे दो-तीन पंक्तियों में कितनी गहरी-चुभन वाली बात कह देता था प्रदीप। ज्यादातर मंचों पर व्यंग्य सुनाने वाले हम दोनों ही हुआ करते थे लेकिन हमारा दुर्भाग्य देखिए कि कई बार हास्य कवि के रूप में परिचय कराया जाता था। फिर उन्हें कुछ शेर याद आ गए-
हजारों गुल हैं अभी मुंतजिर बहारों के 
बहार आई है लेकिन किसी किसी के लिए।
चांद-सूरज के लिए अपना सफर क्यूं रोकू
एक जुगनू है साथ मेरे रहबरी के लिए।
बजाय बुत के तू इंसा के रूप में मिलना
तभी झुकाउंगा में सर को बंदगी के लिए। 
अपनी शेरो शायरी पर वो तफसील से बताने लगे मैं तो पंद्रह बरस की उम्र से ही शेर कहने लगा और मुशायरों में पढ़ने लगा था। बाकी शायरों को तब भरोसा नहीं होता था कि ये शेर मेरे ही लिखे हैं। मैं उनसे कहता आप शेर की पहली लाईन दीजिए मैं उसे दूसरी लाईन लिख कर पूरा कर दूंगा, कई बार ऐसा किया भी।शुरुआत के कई वर्षों तक मैंने मुशायरे ही पढ़े।ये कविता-मुक्तक-व्यंग्य तो बाद में लिखना शुरु किया।मंचों से मैं कहां दूर हुआ, अभी बीते साल अक्टूबर में ही मुंबई में पढ़ कर आया हूं। दरअसल अब कवि सम्मेलनों की पहले सी गरिमा भी नहीं रही, अड्डेबाजी हावी है। तू मुझे बुला, मैं तुझे बुला लूंगा वाली राजनीति ने मंच से कविता गायब कर दी है।अब ऐसे  मुक्तक कौन मंच पर पसंद करेगा-
पतझड़ की पदचाप से, ऐसे कांपे पात,
कैदी पर भारी पड़े, ज्यों फांसी की रात।
खिले फूल को देख कर शबनम हुई उदास,
इस पगले को क्या पता, मौत खड़ी है पास।
जब खुशबू की धूप पर, मंडराती है भूख,
तब केशर की क्यारियां, बनती हैं बंदूक।
जब राजकुमार कुम्भज, तारिक शाहीन, चंद्रशेखर बिरथरे, स्वरूप वाजपेयी, अशोक देवले से लेकर अश्विन जोशी, अर्जुन राठौर, सुरेंद्र यादव, सुभाष खंडेलवाल, अभय नीमा, युवा कवि प्रद्युम्न, लकी सोनगरा आदि उनकी रचनाओं की तारीफ कर रहे थे तो माणिक कहने लगे मैं अपाहिज जैसा हो गया हूं लेकिन कविता मुझ से नहीं छूटती।ये तो मुझे विरासत में मिली है, मेरे पिता रामदंगल के कवि रहे, मेरे पिता और सत्पतन जी के पिता का कई बार रामदंगल मुकाबला हुआ।परसाई जी और सरोज कुमार ने ना सिर्फ मुझे प्रभावित किया है बल्कि अधिकांश मंचों पर भी सरोज भाई ने ही अवसर दिए।प्रयास कर के तो कविता कभी नहीं लिखी जा सकती। हालात का जब असर पड़ता है तो कविता खुद ब खुद जन्म लेती है।आदि कवि वाल्मिकी ने जब शिकारी के कीर से घायल क्रोंच पक्षी को देखा तो कविता कह डाली।
 व्यंग्यकार जवाहर चौधरी से सरोज जी ने यह कहते हुए करवाया कि 2011 में इन्हें आप के नाम से दिया जाने वाला माणिक वर्मा व्यंग्य सम्मान भोपाल में मप्र लेखक संघ(अध्यक्ष बटुक चतुर्वेदी, मंत्री कैलाश जायसवाल) दे चुका है तो माणिक बोले ये तो मेरा भी सौभाग्य है कि इनसे मुलाकात हो गई।अपनी बात खत्म करने के साथ ही मंचों और पीढ़ियों में बदलाव पर दो लाईनें सुनाई-
जब भी चिड़ियों को बुलाकर, प्यार से दाने दिए, 
इस नई तहजीब ने हम पर, कई ताने दिए। 

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