मध्य प्रदेशमुख्य समाचार
काम किये होते तो न सम्रद्धि के झिलमिल- स्वप्निल नारे देने की जरूरत पड़ती न झूठे सपनों के मीठे वादों की !
(होमेन्द्र देशमुख,भोपाल )
पूरे सीजन की कमाई 27 बोरा लहसुन को, 2700 रुपये किराए का पिक-अप वैन में लोड कर मंडी पहुंचा किसान। नीलामी की टीम को बड़ी उम्मीद से देख रहा था। यह उम्मीद चंद समय, दिन, रातों का नही बल्कि साल भर की इस फसल के बोने के दिन से था। मंडी की नीलामी टीम पहुचते ही सरकारी मुंशी 150 रुपये की शुरुआती बोली शरू करता है। चार, कबाड़ खरीदने की नीयत से निकले व्यापारी की तरह चेहरों को, यह 12 एकड़ खेती का मालिक, सरकारी कैलेंडर पर ट्रेक्टर पर बैठ कर चुनावी वादों की गठरी ढोता, मुस्कुराता, धरती-पुत्र, वह किसान किसी ईश्वर की कृपा, किसी अल्लाह के मेहरबानी की आश में उन देवदूतों के चेहरे से नजर नही हटा पा रहा था, जैसे कोई प्रसाद, किसी खैरात मिलने वाली हो।
किसी सूखे सरकारी हैंडपम्प के टप्प-टप्प बूंदों की तरह बढ़ती बोली पर किसान की निगाहें उस मुंशी और व्यापारी के बीच दया का भाव ले कर ऐसे झूल रही थीं जैसे बोली लगाने वालों के जुबान में इज्जत की रकम भर देना चाहता हो।
सरकारी मुंशी के आंखों से शुरू हुए कुटिल इशारे को लपकते उन बोलीबाजों के आखिरी इशारा पाते ही वही मुंशीे 1-2-3 बोल कर अगली ढेर की ओर बढ़ जाता है, जैसे बढ़ जाता है पूरा गिद्ध झुंड,अगले मांस की ओर। किसान के उम्मीद और सपने से भरे पलक झपकने को भी मोहताज़ आंखों में अभी-अभी क्विंटल का 225 रुपिया थूक कर चला गया भावान्तर का दूत। कलपता किसान आसूं भी नही निकाल पाया। कारवां गुजर गया! गुबार देखता किसान अपनी मिट्टी से निकले इन सपनों के बीज को अब तुलवाने के बजाए वापस घर ले जाने को समेटता दिखा। वह अपने फसल को इन भावान्तर के राक्षसों के मुंह का निवाला बनाने के बजाय अपने घूरे में फेंकना उचित समझने लगा।
मुखिया जी !
किस जवान, किस किसान, किस जनता, किस शहर का किस मंडी का, किस व्यापारी का यह किस्सा है, मैं आपको क्या बताऊँ…? और क्या सुने और देखेंगे धृतराष्ट्र की तरह पट्टी से ढके आपके कान और आंख…यह आत्ममुग्धता आपको देता कौन है ? आपके इरादे जमीन पर उतरते क्यों नही ? और अगर आपके कथित देश-प्रसिद्ध मंसूबों और योजनाओं पर पानी फेरता कौन है ?
क्या कभी भेष बदल कर देखा, क्या उड़न खटोले से उतरकर देखा, जानने की कोशिश की आपने की प्रदेश और देश का मीडिया अगर दर्द बयां कर रहा है तो असल मे कुछ तो सच्चाई भी हो सकती है। क्या अगर आपको ये नाहक लगते रहे तो क्या कुत्तों की तरह भोंकने वालों के बीच चलने वाले मस्त हाथी की चाल में आंख मूंदे चलते आप कम दोषी नही हैं।
अगर कान और आंख खुले रखते तो आप को एक बार फिर सत्ता का मुकुट पहनने में करोड़ों का प्रचार नही करना पड़ता। न विकास के झिलमिल-स्वप्निल नारे देने की जरूरत पड़ती न झूठे सपनों के मीठे वादों की !
क्या चाहती है अपनी जिंदगी के समस्याओं और सपनों के बीच जीती जनता। शिक्षा को इज्जत का रोजगार, उपज को इज्जत की कीमत, तुम्हारे हिस्से का टैक्स दे कर तुम्हारी गाड़ी में तेल डलवाता व्यापारी, सपाट सड़क पर सीने तान कर चलता बुढापा, महफूज इज्जत और गौरव करती बेटियां…!
न उसे मुफ्त शिक्षा चाहिए न सायकल और स्कूटी, न भावन्तर का भुलावा चाहिए न कर्ज माफी की भीख, न जी एस टी की लूट वाला लॉलीपॉप चाहिये न तीर्थ की रिश्वत।
शास्त्रों में कहा गया है, इतना कमा लो कि बुढ़ापे में तीरथ कर सको, इतना कमा लो कि अपने और पड़ोसी को भूखा सोना न पड़े, इतना कमा लो कि बेटे को सिर झुका कर चलना न पड़े, इतना कमा लो कि बेटी को मुंह छुपाने की नौबत न आये…
कुछ काम जनता को खुद करने दो। पूंजीवाद के खिलाफत करने वाले, मार्क्सवादी का विरोध करते करते क्या सारा ठेका आपने ओढ़ लिया। मुफ्त का माल बांटकर जब आपका आज आपका हाथ खाली है और खा खा कर हमारा पेट भी खाली है। न वे खुश हैं जिनका निवाला छिना न वो भरे ही जिनको आपने मुफ्त का मोहन-भोग छकाया। आप कगार पर खड़े हैं, हो सकता है आप किसी तरह फिर लौट आएं। पर छिनती राजगद्दी पर फिर से बैठने का मौका मिल जाय तो सोचना कि असल मे सरकार का क्या काम है और जनता को क्या चाहिए ?
आपने क्या और कितना भेजा और उसे क्या और कितना मिला यह भी देखने की सही व्यवस्था कर लेना …
मैं दुआ करता हूं कि बिल्ली के भाग से छीका टूटे और हवा के विपरीत उड़ कर तुम ही फिर आओ। और अगर फिर लौट आ सको तो लुट चुकी जनता पर अपनी जीत के बजाय उसे अपनी सुधार का एक आखिरी मौका समझना।
सबक हारते हुए, जीत कर भी लिया जा सकता है। उम्मीद है, तब तुम इस जनता और भूमि को लूट की प्रयोगशाला मत समझना, इक्कीसवीं सदी के राज्य का सफल शासक बन कर दिखाना।
अगर आप सचमुच चले गए तो शायद नए शासक को भी पहले ही संकेत और सबक दे जाओ कि जनता अब और एक सफेद हाथी बर्दास्त नही करेगा। मैं उनको भी कहूंगा –
हे नई सरकार ! जनता ने आपको बड़ी जिल्लत से हटा कर एक नई उम्मीद से बैठाया है। उनके सपनों के साथ तुम भी मत खेलना।
क्योंकि-पुराना जाए या कोई और आ जाए, अगर हमारे छाती को चारागाह समझा तो ये जनता फिर ठगे रहने की पीड़ा नही झेल सकेगा।
वरना निकलेगा, फिर गुस्सा-फिर परिवर्तन..!
और खड़ा रह जायेगा राज्य और खड़ी रह जाएंगी उसकी समस्याएं वहीं के वहीं…