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मक्का आतंकवादी हमले मामले में किसी को सजा न होना निस्संदेह निराश करता है

हैदराबाद की मक्का मस्जिद में 11 वर्ष पहले हुए विस्फोटों में एनआईए की विशेष न्यायालय द्वारा आरोपितों को बरी किया जाना कोई सामान्य फैसला नहीं है। एक लंबे समय तक देश में संगठित हिन्दू आतंकवाद का जो भय पैदा किया गया और कई आतंकवादी हमलों को उससे जोड़कर देखा गया उसे यह फैसला गलत साबित करने वाला है। यह बात ठीक है कि किसी मुकदमे में हिन्दू या भगवा आतंकवाद शब्द लिखा नहीं जाता। किंतु इस मामले में जिन दस लोगों को आरोपित बनाया गया उनका आधार ही यही था कि ये ऐसे हिन्दू संगठन से जुड़े थे जिसने आतंकवाद का रास्ता चुना। न्यायालय ने अपने फैसले में कहा कि अभियोजन पक्ष किसी आरोपित के खिलाफ अपराध साबित नहीं कर सका। यानी उनके पास आरोपियों को दोषी ठहराए जाने लायक सबूत थे ही नहीं। जाहिर है, कांग्रेस नेतृत्व वाली पूर्व यूपीए सरकार ने जिस हिन्दू और भगवा आतंकवाद को हौव्वा खड़ा किया था वह झूठा साबित हुआ है। इस मायने में एनआईए न्यायालय के फैसले के महत्त्व को समझा जा सकता है। पहली नजर में मक्का आतंकवादी हमले मामले में किसी को सजा न होना निस्संदेह निराश करता है। किंतु न्यायालय तो सबूतों के आधार पर फैसला करती है। हम किसी को अपराधी मान लें इससे वह अपराधी नहीं हो जाता। अगर आप बिना सबूत किसी व्यक्ति या संगठन को आरोपित बनाएंगे, मनगढंत कहानियां बनाएंगे तो न्यायालय इसे नहीं स्वीकारेगा। वास्तव में आरंभ में जब मामला स्थानीय पुलिस के हाथ था तो हमारे पास कुछ दूसरी सूचनाएं आई। उस समय राज्य की आतंकवाद निरोधक दस्ते ने तीन दर्जन लोगों को हिरासत में लिया था। उनसे पूछताछ की गई। उस समय बांग्लादेश के हरकत उल जेहाद अद इस्लामी यानी हुजी को इसका अपराधी बताया गया। इस दिशा में जांच आगे बढ़ ही रही थी कि मामले को सीबीआई को सौंप दिया गया। सीबीआई ने अपने तरीके से जांच की। उसी समय जांच अचानक दूसरी दिशा में मुड़ गई। इसके पहले इस हमले के पीछे दो जो नाम सामाने आए थे, वे थे मोहम्मद शाहिद उर्फ बिलाल एवं शरीफुद्दीन यानी हम्जा। इनमें हम्जा बांग्लादेशी था। लेकिन केन्द्रीय मंत्रियों के बयान आने लगे कि देश में हिन्दू आतंकवाद खतरनाक रूप ले रहा है। इसके साथ ही जांच हिन्दू संगठनों की ओर मुड़ गया। यह कहा गया कि हैदराबाद की मक्का मस्जिद, अजमेर दरगाह, समझौता एक्सप्रेस तथा मालेगांव धमाके के पीछे हिन्दू आतंकवादियों का हाथ है। इसमें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एवं अभिनव भारत का नाम लिया गा। सीबीआई ने ही 19 नवम्बर, 2010 को स्वामी असीमानंद को गिरफ्तार किया। सीबीआई ने ही देवेंद्र गुप्ता और लोकेश शर्मा को भी गिरफ्तार किया। 18 दिसम्बर, 2010 को यह भी खबर आई कि असीमानंद ने विस्फोटों में शामिल होने का आरोप स्वीकार लिया है। सीबीआई की जांच चल ही रही थी कि इसे अपैल 2011 में एनआईए को सौंप दिया गया। ऐसा भी नहीं है कि पहले सीबीआई एवं बाद में एनआईए ने गवाहों और दस्तावेजों पर काम नहीं किया। इस मामले में कुल 226 गवाहों के बयान दर्ज किए गए थे। एनआईए ने इनसे पूछताछ की। न्यायालय में 166 गवाहों के बयान दर्ज हुए। किंतु इनमें से प्रमुख 54 गवाह धीरे-धीरे पलट गए। अनेक गवाहों ने न्यायालय से कहा कि उनसे जबरन यह बयान दिलवाया गया। कर्नल पुरोहित भी इसमें गवाह थे जो कि 15 फरवरी 2018 को पलटे। एनआईए का कहना था कि कर्नल पुरोहित तथा असीमानंद के बीच जोशी की हत्या के बाद बातचीत हुई। पुरोहित को असीमानंद एवं देवेन्द्र गुप्ता को पहचानना था। पुरोहित ने न्यायालय को बताया कि सीबीआई या एनआईए ने कभी उनका बयान रिकॉर्ड ही नहीं किया। गवाहों के अलावा एनआईए ने करीब 411 दस्तावेज न्यायालय के समक्ष पेश किए। आज यह मानना होगा कि पहले सीबीआई और बाद में एनआईए ने सरकार की सोच के अनुरूप अपनी ओर से हिन्दू आतंकवाद को साबित करने के लिए कथा बनाई और उसके पात्रों को पैदा किया। माहौल ऐसा बना दिया गया था कि कई गवाहों ने भय से जो उन्होंने कहा मान लिया और उस पर हस्ताक्षर कर दिया। किंतु जैसे ही उनका भय हटा उन्होंने न्यायालय के समक्ष सच बयान कर दिया। ध्यान रखिए, सीबीआई एवं एनआईए ने स्वामी असीमानंद को इन विस्फोटों का मास्टरमाइंड साबित किया था। उसे अजमेर दरगाह विस्फोट में भी बरी किया जा चुका है। अब समझौता एवं मालेगांव विस्फोट का फैसला आना बाकी है।इसे एक ट्रेजेडी ही कहेंगे कि इतने बड़े षड्यंत्र में किसी को सजा नहीं मिली। ठीक जुम्मे की नमाज के वक्त जब मस्जिद में करीब 10 हजार लोग एकत्रित थे पाइप बम को मोबाइल फोन द्वारा विस्फोट कराया गया।किंतु जब आप सही दोषी तक पहुंचने की जगह राजनीतिक नजरिए से दोषी पैदा करेंगे और उसके अनुसार कृत्रिम सबूत और गवाह सामने लाएंगे तो उसका यही हश्र होगा। जिनने भी विस्फोट किया वे देश के दुश्मन थे भले वे किसी समुदाय के हों, उनको सजा मिलनी ही चाहिए थी। सीबीआई एवं एनआईए की गलत रवैये से ऐसा नहीं हो सका। विडम्बना देखिए कि राजनीतिक दल असली अपराधियों को पकड़ने की मांग की जगह सरकार को ही आरोपित कर रहे हैं। उनका कहना है कि सरकार की ढिलाई से ये लोग बरी हो गए। कहना न होगा कि आतंकवाद के मामले में भी हमारे देश में राजनीति हावी है। गृह मंत्रालय के तत्कालीन अवर सचिव आरवीएस मणि कहते हैं कि किस तरह उनके विभाग पर इन विस्फोटों की जांच को हिन्दू आतंकवाद की ओर मोड़ने के लिए दबाव बनाया गया था एवं इसे न मानने पर उनका उत्पीड़न किया गया। मणि वही पूर्व अधिकारी हैं, जिन्होंने 2016 में खुलासा किया था कि यूपीए सरकार के दौरान उन पर दबाव डालकर इशरत जहां मामले में दूसरा हलफनामा दाखिल कराया गया था। उनका आरोप था कि दूसरे हलफनामे में इशरत और साथियों के लश्कर से संबंधों की बात दबाव डालकर हटा दी गई थी। राजनीतिक नजरिए से कुछ भी कहा जाए लेकिन देश चाहेगा कि जो भी विस्फोटों के दोषी हैं, उनको कानून के कठघरे में खड़ा किया जाए।

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