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1967 के युद्ध पर लिखी मेजर प्रबल दासगुप्ता की किताब बढ़ा सकती है कांग्रेस की परेशानी

 

  ( कीर्ति राणा )

 

भारत और चीन के बीच 1962 में हुए युद्ध में भारत की पराजय तो सब को पता है लेकिन 1967 में भारत केहाथों चीन बुरी तरह पराजित भी हुआ है, इस जीत के कहीं दस्तावेज उपलब्ध नहीं होने और खुद सरकार द्वाराइस जीत को प्रचारित नहीं करने जैसे ही कारण है कि देशवासियों को यह पता ही नहीं चल सका कि 1967 मेंभारत ने चीन को सबक सिखाने के साथ ही ‘62 की पराजय का बदला ले लिया था। यह सब संभव हो सकाथा जनरल सगत सिंह के नेतृत्व से, जिनकी इस उपलब्धि को भी उचित सम्मान नहीं मिल सका।इस युद्ध मेंचीनी सैनिकों की मशीनगन पर गोरखा रेजिमेंट के जवानों की खुखरी ऐसी भारी पड़ी कि मनोवैज्ञानिक रूप सेचीनी इतनी सेना हताश हुई कि 67 के बाद से आज तक चीन ने भारत के खिलाफ युद्ध की सोच नहीं सका औरन ही खुलकर पाकिस्तान की मदद की हिम्मत जुटा सका है।

चीन पर भारत की ऐसी ऐतिहासिक विजय की दास्तान पर डेढ़ साल की मेहनत के बाद मेजर प्रबल दासगुप्ताने ‘वॉटरशेड 1967, इंडियाज फॉरगॉटन विक्टरी ओवर चायना’ किताब लिखी है।उनके पिता कैप्टन विप्र दासदासगुप्ता की प्रेरणा से उन्होंने भी आर्मी ज्वाइन की और पिता तथा उनके सहकर्मियों से 1967 की इस जीत केबारे में सुनते थे और सोचते थे कि इस जीत को देश के गौरव का स्थान क्यों नहीं मिल पाया। बस इसी कसकने उन्हें यह किताब लिखने की प्रेरणा दी, तथ्य जुटाने में दिक्कत इसलिए नहीं आई कि वे खुद सेना में रहे हैंलेकिन इस युद्ध में शामिल रहे तत्कालीन सैन्य अधिकारियों को तलाशना उनसे चर्चा करना बेहद चुनौतीपूर्णरहा क्योंकि ज्यादातर की उम्र 80-90 वर्ष हो चुकी थी।

जिस तरह 1967 में नाथू-ला और चो-ला में चीन पर भारत की जीत ऐतिहासिक है उसी तरह इस विजय परउनकी लिखी यह पहली किताब भी मील का पत्थर हीहै।किताब के मुखपृष्ठ पर जो चित्र है वह युद्ध के एकदिन पहले का है जब चीनी बार्डर के हिस्से पर जनरल संगत सिंह के नेतृत्व में कंटीले तार लगवाने के निर्देश कामेजर दिलीप सिंह पालन करा रहे थे और विरोध कर रहे चीनी सैनिकों ने एक भारतीय सैनिक पर हमला करउसे घायल कर दिया था।

1962 की जीत से उत्साहित चीनी सैनिकों को लगा था कि इस बार भी भारतीय सेनामनोवैज्ञानिक तौर पर हताश हो जाएगी, चीनी सैनिकों ने यकायक गोलीबारी शुरु कर दी।इस जीत के हीरो रहेमेजर सगत सिंह ने बिना एक पल खोए मुंहतोड़ जवाब देने की योजना पर अमल शुरु कर दिया।सैन्य नियमोंके तहत आर्टिलरी का उपयोग करने के लिए दिल्ली से इजाजत लेना होती है।मेजर ने खुद ही चीनियों परआर्टिलरी फायर का निर्णय ले लिया।ग्रेनेडियर्स बटालियन और राजपूताना रेजिमेंट के आक्रामक रुख कानतीजा यह रहा कि पांच दिन बाद चीनी सेना को नाथू-ला से पीछे हटना पड़ा।

-खुखरी भारी पड़ी मशीनगन पर

नाथू-ला में भारतीय सेना की इस जीत के पंद्रह दिन बाद चीनियों ने चो-ला में अचानक फायरिंग शुरु कर दी।यहां तैनात गोरखा रेजिमेंट के जवानों ने खुखरी से इतनी फुर्ती में लगातार वार किए कि चीनी सैनिक मशीनगनका इस्तेमाल करने में चूक गए।तोप-बंदूक से लड़ने वाले इन सैनिकों को यह समझ ही नहीं आया कि खुखरीभी इतनी घातक हो सकती है।दो दिन की लड़ाई के बाद भारतीय जवानों ने चो-ला से भी चीनियों को खदेड़दिया।वॉटरशेड की इस लड़ाई का ऐसा खौफ बैठा कि 1971 में भारत-पाक के बीच हुए युद्ध में चीन ने पाकका साथ देने की हिम्मत नहीं की तो उसके कारण रहे रूस से बेहतर संबंध होना, सिक्किम में सिलीगुड़ीकारिडोर बन जाना और चीन को यह विश्वास हो जाना कि वह अब भारत को नहीं रौंद सकेगा।

मीडिया से चर्चा में मेजर प्रबल दासगुप्ता ने माना 1962 में चीन के हाथों हुई पराजय पोलिटिकल लीडरशिपकी गलतियां रही लेकिन 1965 में चीन को दिए मुंहतोड़ जवाब को सरकारी नीतियों के कारण ही प्रचारित नहींकिया जा सका क्योंकि फिर 1962 की हार को लेकर भी सवाल जवाब होते। 1971 में पाक के विरुद्ध जीत केबाद तो पुरानी सारी गलतियों को भुला ही दिया गया।

-सरकार ने तो ब्रिगेडियर जॉन दालवी की लिखी किताब तक बैन कर दी!

मेजर दासगुप्ता की लिखी यह किताब अगले कुछ दिनों में राजनीतिक स्तर पर तहलका मचा सकती है। भाजपा को कांग्रेस और इंदिरा गांधी की नाकामियों के खिलाफ मुद्दा मिल सकता है।उन्होंने इस किताब को इंदौर में इसलिए लोकार्पित किया क्योंकि वे ‘89 में डेली कॉलेज में पढ़े हैं।कॉलेज के प्रोफेसर अंसारी ने विमोचन किया तब डेली कॉलेज के अन्य प्रोफेसर, मेजर दासगुप्ता के दोस्त आदि भी मौजूद थे।

इस किताब में रोचक, सनसनीखेज-सच्चे किस्सों में यह भी है कि चीन ने भारत के जिन ब्रिगेडियर जॉन दालवी को कैद से डेढ़ साल बाद छोड़ा, उन्होंने 1962 के युद्ध में रही खामियों को लेकर किताब लिखी थी।तत्कालीन सरकार ने तो इस किताब को भी बैन कर दिया था।लीडरशिप की खामियों का आलम यह था कि 1962 के युद्ध में वायु सेना का उपयोग ही नहीं किया जबकि वह सशक्त थी। 1967 और ‘71 के युद्ध में जो सफलता मिली उसका श्रेय जनरल सैम माॉनेकशा, जगजीत सिंह और सगत सिंह को जाता है। सगत सिंह को इंडिया के रोमिल, गुटेरियन के नाम से पहचाना जाता था लेकिन भारत सरकार ने उनकी उपलब्धियों को आज तक सम्मान लायक नहीं माना।

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