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क्या आज जिंदा है श्रवण कुमार ….

 

[mkd_highlight background_color=”” color=”red”]मनीषा शाह[/mkd_highlight]

 

 

दोस्तों कई दिन हो गए आपसे रूबरू हुए . आज मैं जिस विषय पर आपसे से बातचीत करने आई हूं. जिस कहानी के माध्यम से अपनी बात रखना चाहती हूं.. वह कहानी आपकी भी हो सकती है… या आपके आसपास किसी की भी हो सकती है.. इस कहानी का शीर्षक माना कि बहुत लंबा है परंतु आपको सोचने पर मजबूर तो करेगा ही..”” क्या श्रवण कुमार आज जिंदा है , अगर नहीं तो उसकी हत्या आखिर किसने की “” शीर्षक पढ़कर दोस्तों आप समझ ही गए होंगे कि आज हमारी कहानी किस विषय के आस पास चलेगी। अपितु विषय की तह तक जाने की कोशिश भी करेंगी..
पितृपक्ष में जब मैं इस प्रसगं का उदाहरण दे रही हूं… श्रवण कुमार कौन था.. यह बताने की जरूरत शायद नहीं है..
आप सभी जानते हैं कि वह एक महत्वपूर्ण किरदार था त्रेता युग का और इसका महत्व और भी बढ़ जाता है जब श्रवण कुमार कहीं ना कहीं श्री राम के चरित्र को दुनिया में उभारने के लिए एक महत्वपूर्ण आधार बनता है.. पर क्या उसको जीवंत रखने का यही कारण है या कुछ और भी…

याद आया दोस्तों हां वही कारण जिसकी वजह से श्रवण कुमार की कहानी आप अपने बच्चों को पढ़ाते और समझाते भी हैं.. वह कहानी है एक नौजवान की जो अपने चक्षु हीन माता-पिता की निष्पाप सेवा करने के लिए जाना जाता है.. एक समय की बात है वह अपने नेत्रहीन माता पिता के लिए जंगल से पानी लेने गया था.. इस बीच उस समय के महा प्रतापी राजा दशरथ जंगल में आखेट करने के लिए आए होते हैं.. तभी उन्हें झाड़ियों में कुछ हलचल सुनाई देती है.. उन्हें लगता है कोई पशु तो नहीं और वह शब्दभेदी बाण से जिस तरफ से आवाज आ रही है वहीं निशाना लगाते हैं… तभी एक चीख सुनाई देती है और राजा दौड़ते हुए जाते हैं और देखते ही हतप्रभ रह जाते हैं.. उनके शब्दभेदी बाण लगने से पशु नहीं अपितु एक नौजवान खून से लथपथ मरणासन्न अवस्था में है…
परंतु आज की बातचीत केवल एक कहानी सुनाने तक सीमित नहीं.. उसको गहराई से परखने और समझने की भी है..
क्या श्रवण कुमार एक मामूली इंसान ही है या मेरे आपके या हमारी तरह एक जोशीला नौजवान है.. जिसके अंदर आज भी श्रवणं कुमार कहीं ना कहीं जीवित है.. और यदि जीवित नहीं तो उसकी मृत्यु का जिम्मेदार आखिर कौन है…
मैंने कहीं ऐसा भी सुना है कि प्रत्येक बच्चे में भगवान होता है… परंतु समय के साथ उसके अंदर से भगवान कहां विलुप्त हो जाता है… वैसे तो दुनिया में आया हुआ हर मानव ईश्वरीय अंश ही है.. परंतु क्या हर मानव बड़ा होकृ श्रवण कुमार ही बनता है या कुछ और… या बनने से पहले ही उसकी हत्या कर दी जाती है..
क्या उसकी असमय हत्या के जिम्मेदार उसके माता-पिता ही है.. जो श्रवण कुमार के माता पिता की तरह नेत्रहीन भले ही ना हो परंतु मानसिक व्यवहारिक हर तरीके से नेत्रहीनता की और ही बढ़ रहे हैं.. अंध मानसिकता में
वह यह भी भूल जाते हैं कि वे अपने बच्चों में भविष्य के प्रति किस आधारशीला की स्थापना कर रहे हैं… माता-पिता यह उम्मीद तो रखते हैं कि उनकी संतान श्रवण कुमार जैसी बने … पर उसे बनाने में क्या सही दिशा में मेहनत करते हैं… जवाब आएगा शायद नहीं…. क्योंकि जिस प्रकार आज का युवा थोड़ी सी घटना से आहत होकर या तो अवसाद( डिप्रेशन ) की तरफ जा रहा है या किसी गलत राह की ओर मुड़ जाता है…. या मृत्यु को गले लगाने से भी नहीं चूकता…
पर क्यों वह ऐसे कदम उठाने के लिए मजबूर हो गया है… ऐसा कौन सा बोझ है उसके जेहन में जो उसे ऐसा कदम उठाने को मजबूर कर देता है..
क्या उसके सपने वास्तविक है..या काल्पनिक..
यह उसे कौन बताएगा….
क्या यह जिम्मेदारी उसके परिजनों की नहीं है.. और यदि वह वास्तविक है तो वह अपने माता पिता सपनो से भिन्न क्यों नहीं हो सकते…. क्या परिजन अपने सपनों का बोझ अपनी संतानों पर नहीं लाद देते… आखिर ऐसा करने की आवश्यकता क्या है… हम क्यों नहीं चाहते हमारी संताने अपनी खुशी को जियें … क्या ऐसा नहीं हो सकता जब वह अपनी असल खुशी को पहचानेंगे तभी तो अपने आसपास भी खुशियों का संचार कर पाएंगे….
क्या सपनों की हत्या भी एक श्रवण कुमार की हत्या नहीं है..?

दूसरा कातिल आखिर कौन है राजा दशरथ जो बिना जाने अंधकार में तीर चला देते हैं..
यह भी नहीं सोचते और जानते कि इसका परिणाम कितना भयावह हो सकता है….
दशरथ यानी कौन इसका क्या पर्याय है… इसका पर्याय वही बाहरी वातावरण से है फिर चाहे वह हमारी संगति से हो जो हमारे साथ तब रहती है जब हम बाहर की दुनिया में अपनी पहचान ढूंढने निकलते हैं …
जो हमारे जीवन को किसी भी दिशा में मोड़ सकती है….
या चाहे वह आज की शिक्षा पद्धति में हमारे वह शिक्षक ही क्यों ना हो जो हमें सिर्फ किताबी ज्ञान ही दे रहे हैं… जिससे हम अधिक से अधिक केवल एक अदत नौकरी पा सकते हैं और कुछ नहीं…..
और हां सबसे महत्वपूर्ण तो वह शासक जिन्हें सिर्फ नाम के लिए ही जनता का सेवक कहा जाता है…. परंतु क्या वह आज के युवा वर्ग का दर्द समझ पा रहे हैं..
जो आज बिल्कुल मानसिक रूप से टूटने की कगार पर खड़ा है.. जो हर तरफ से वार झेल रहा है… जेसे खुद के सपनों की तरफ भागने का… दूसरा अपने परिवार को बेहतर जीवन देने का… इतना ही नहीं जब वह कहीं ना कहीं इन मुश्किलो को पार करने की हिम्मत कर भी लेता है.. तब उसे यह सामाजिक और सरकारी व्यवस्था या यूं कहें ढर्रा उसे तोड़ने की पूरी साजिश मे लग जाता है… एक तथाकथित दायरे में जीने का उसे फरमान सुना दिया जाता है.. चाहे उसकी योग्यता अनुसार हो या- ना हो …
उसके लिए रुचिकर हो या – ना हो ..
सरकारी हत्या मतलब बेरोजगारी से मरना… उचित शिक्षा , प्रशिक्षण एवं मार्गदर्शन के अभाव के कारण सपनों का मरना और सपनों को मरते हुए देख कर अवसाद में आकर स्वयं की जीवन लीला समाप्त कर लेना…
क्या राजा का आखेट करने का शौक प्रजा के लिए उसके धर्म पर भारी तो नहीं पड़ जाता है….

चौथा कौन है जिसने श्रवण कुमार को मारा… ज्यादा सोचने की आवश्यकता नहीं.. स्वयं के अंदर झांकिये …कहीं हम स्वयं ही तो
नहीं है जिम्मेदार….
चलो मान भी लें उपरोक्त सभी गुनाहगार हैं… शायद ह़ भी सकते हैं…. पर इस सब के बाद भी क्यों हम Albert Einstein की उस थ्योरी को नकार देते हैं जो कहती है कि शक्ति को न तो बनाया जा सकता है ना ही खत्म किया जा सकता है… परंतु उसको एक पदार्थ से दूसरे पदार्थ में परिवर्तित करके और अधिक उपयोगी बनाया जा सकता है….
क्या हम यह नहीं कर सकते अपने आसपास की नकारात्मक शक्तियों को सकारात्मकता में ढाल सकें….
क्यों नहीं… आखिर क्यों नहीं.. कर सकते हैं… और कीजिए…. अपने अंदर के श्रवण कुमार को कभी मरने ना दीजिए…. जिएं और केवल जीने की बात कीजिए…..

 जज्बा है जुनून है हिम्मत है हौसला है….
 अपने हर सवाल का तू खुद ही जवाब है
 फिर क्यों डरता है मंजिल की तरफ बढ़ने से
 यह सिर्फ मंजिल नहीं तेरी
 तेरी जिंदगी का बस एक पड़ाव है…

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