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पैसे दिए तो वैश्या हूँ और नहीं दिए तो मैं पीड़िता…

पैसे दिए तो वैश्या हूँ और नहीं दिए तो मैं पीड़िता..यह वाक्य उस कहानी की नायिका का है जो इस पुरूष प्रधान समाज की वो हकीकत समाने बयां करती है जिसे कभी भी पुरूषों ने स्वीकार नहीं किया। वो बेशक वैश्या है..गंदी औरत। तुम क्या हो..? जो उसके पास जाते हो। यह लेखक आकाश माथूर की किताब मी-टू की तीसरी कहानी है..मैं पीड़िता। इस कहानी की समीक्षा वरिष्ठ पत्रकार शैलेश तिवारी ने की है। पहले आप समीक्षा पढे फिर कहानी और तय करें कि गंदा कौन है?

 

कहानी समीक्षा (मैं पीड़िता)

मैं पीड़िता…. …. कौन है ये.. क्या समस्या है... किस तरह का अन्याय हुआ इसके साथ… क्यों भटक रही है…???? ऐसे अनेक सवालों का दिमाग मे उठना लाज़िमी है। जब कहानी का शीर्षक मैं पीड़िता हो। कहानी की शुरुआत मे लगता है कि लेखक पर उसका पत्रकार हावी हो रहा है जो पुलिस की सभी नैतिक अनैतिक गतिविधियों की गवाही कोतवाली परिसर के पेड़ से कर रहा है। लेकिन जैसे जैसे कहानी आगे बढ़ती है वैसे वैसे सवालों का घेरा बढ़ने लगता है। बीच में भोपाल की घटना का हवाला देकर कहानीकार कथानक को दिलचस्प रहस्यमयी मोड़ देता है। लगता है कि कहानी नारी के कभी न खत्म होने वाले अत्याचार की एक और कड़ी है। वादियों के हसीन मोडो की तरह बलखाती गति से कथानक बढ़ता है और पहाडों के दिलकश नज़ारों की तरह लेकिन खाई की तरफ देखते ही दिल के धक.. से रह जाने जैसा अहसास इस कहानी मे होता है। एक आवश्यक सामाजिक बुराई और वर्तमान के कानून की पृष्ठ भूमि पर चुनी गई कहानी की इमारत पर सवालों के बुर्ज नज़र आते हैं। खास कर तब जबकि पीड़िता यह कहती है कि…. “पैसा मिल जाए तो वैश्या वृति और न मिले तो रेप… ” ये अकेला वाक्य ही कहानी का वो नींव का पत्थर है जो स्वयं कंगूरा बन कर चमकने की हैसियत वाला है। …. बात कहानी से उठे सवालों की…। क्या समाज मे नारी का स्थान केवल और केवल भोग्या जैसा ही है। या वो हमेशा नोंची खरोची जाती रहेगी। परिवार का पेट भरने के लिए हमेशा ज़मीर गिरवी रखती रहेगी। इन तमाम सवालों की जन्मदात्री यह कहानी यहीं बस नहीं करती है। वरन जब योगिता कोतवाली परिसर मे न्याय की गुहार लगा रही होती है तब भी सवालों अंकुर पल्लवित होते हैं। जो मौखिक करार अजमेर वालों और उसके बीच हुआ वो कितना वैध है। अगर वैध है तो उसके लिए कानून मे क्या कार्रवाई हो? अवैध है तो दोनों पक्ष कटघरे मे क्यों नहीं खड़े होते? एक तरफ जरूरत है दूसरी तरफ अय्याशी…। दोनों के लिए पुलिस के पास उचित तर्क भी.. लेकिन उस मजबूरी का क्या जिसका फायदा सब ने उठाया और फार्म हाउस पर अति हो गई। ऐसे कई रत्नेश हैं जिन्हें योगीताओं का शोषण करने का संवेदनशीलता का हथियार मिला है और उसमे वो कामयाब भी हो जाते हैं। देश की त्रिस्तरीय सरकारें मिलकर भी एक जरूरतमंद के इज्जत से पेट भरने की योजना नही बना सकी। यह कहानी का काला पक्ष और ज्वलंत सवाल भी…। बहरहाल अपनी बात कहने मे लेखक की कलम ने बहुत विचार मंथन किया है। तब जाकर कलम की रोशनाई मजबूर नारी के अश्क बनकर कहानी का रूप ले पाई है। कहानी पढ़ेंगे तो शायद ये बातें ज्यादा गहरे से महसूस होंगी…. तो ये स्पीड ब्रेकर हटता है… आप कहानी का मज़ा लीजिए… अगले रविवार फिर मिलेंगे… #me too की नई कहानी के साथ…. धन्यवाद आकाश माथुर… कथानक मे सामाजिक कुरूपता और कानून की बेबसी से रूबरू कराने के लिए….

 

 

-कहानी (मैं पीड़िता)

हमारे शहर का माहौल बड़ा शांत है। छोटा सा जिला है राजगढ़। इतना छोटा की उससे बड़े तो हमारे यहाँ के ब्लाक है। राजगढ़ की कोतवाली जिसका भवन तो छोटा है, पर परिसर बहुत बड़ा है। परिसर में कुछ पेड़ भी हैं। जिनके नीचे कुछ बैंच लगी हैं। जिन पर बैठ कर पुलिस वाले कभी फरियादी, तो कभी आरोपी से चर्चा करते हैं। जिन पेड़ों केनीचे चर्चा की जाती है, उनके पास पुलिस के कारनामों केकई राज हैं, यदि वो पेड़ मुंह खोल दें तो कई पुलिस वालोंकी नौकरी पर बन आए और कई अपने ही बच्चों को मुंहदिखाने लायक न बचें। इन पेड़ों के पास ही कई सच्चेफरियादी और कई झूठे फरियादियों के कच्चे चिट्ठे भी हैं।लोगों को फर्जी फरियादी कैसे फसांते हैं और असलीपीिड़त को न्याय पाने के लिए कितनी परेशानियों कासामना करना पड़ता है? यह सब राज इन पेड़ों के पास हैं,पर ये पेड़ चुपचाप खड़े हैं। कभी दुखी हो जाते हैं, तो शांतखड़े रहते हैं और कभी गुस्सा आता है तो पत्तों औरशाखाओं को जोर-जोर से हिलाते हैं, लेकिन बोलते कुछ नहीं।

इनमें से ही एक पेड़ जो कोतवाली के ठीक सामने था।जिसके नीचे एक बैंच लगी थी। उस पर एक महिला बैठीथी। जो तेज-तेज चिल्ला रही थी। वो महिला पुलिस, समाजऔर न जाने किस-किस को गाली दे रही थी। अधेड महिला जिसने सलवार-सूट पहना था। चेहरे पर कपड़ा बंधा था, जैसे आजकल लड़कियाँ धूल-धूप से बचने के लिए बांधती हैं। पहले ऐसे चेहरे पर कपड़ा हिंदीफिल्मों के डाकू बांधते थे। वो महिला गालियाँ देते हुएकह रही थीं कि वो बड़े लोग हैं तो रिपोर्ट नहीं लिखोगे क्या…?

गरीबों के साथ अमीर कुछ भी करें सुनवाई नहीं होगी।महिला चिल्ला रही थी। बीच-बीच में एक महिला आरक्षक आती उसे डांटती कहती तू कौन-सी सही है। जो तेरी सुनें। खुद को देख पहले… ।

यह चलता रहा।

महिला आरक्षक आकर डांटती, वो चुप हो जाती, फिरचिल्लाने लगती।

वो शहर के कुछ नामचीन लोगों पर दुष्कृत्य का आरोपलगा रही थी और पुलिस रिपोर्ट दर्ज नहीं कर रही थी, यहसब चलता था।

पत्रकारों को खबर लगी कि किसी महिला के साथ दुष्कृत्यहुआ है और पुलिस रिपोर्ट नहीं लिख रही है। मुझे मामलामध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में हुए निर्भयाकांड जैसालग रहा था। जहाँ हबीबगंज इलाके में यूपीएससी कीकोचिंग कर रही एक 19 वर्षीय छात्रा के साथ 4 लोगों नेसामूहिक बलात्कार किया था। छात्रा के साथ आरोपियों नेइस कदर हैवानियत दिखाई कि वो कई घंटों तक झाड़ियांेमें बेहोश पड़ी रही थी। पीिड़त छात्रा विदिशा की रहने वालीथी। जो भोपाल के एमपी नगर जोन 2 में स्थित एकसंस्थान से यूपीएससी की कोचिंग ले रही थी।

31 अक्टूबर की शाम वह कोचिंग से हबीबगंज स्टेशन कीतरफ पैदल जा रही थी। तभी कुछ बदमाशों ने उसकारास्ता रोक लिया और उसका मुंह दबाकर उसे एक छोटीपुलिया के नीचे झाड़ियांे में ले गए। वहाँ आरोपियों नेलड़की को पहले जमकर पीटा और फिर उसके हाथ-पैरबांधकर तीन घंटे तक हवस का खेल खेलते रहे। पीिड़तलड़की ने पुलिस को बताया कि जब वह उनकी ज्यादती सेबेहोश हो गई तो आरोपी चाय पीने और गुटखा खाने केलिए गए। इसके बाद वे अपने दो साथियों के साथ वापसआए। उन दो लोगों ने भी लड़की के साथ रेप किया।पीड़िता ने यह भी बताया था कि वारदात के बाद जब उसेहोश आया तो वह किसी तरह से हबीबगंज आरपीएफ थानेपहुँची। पिता को फोन कर पूरी घटना बताई। इसके बावजूदपुलिस ने घटना को गंभीरता से न लेते हुए मामला दर्ज नहींकिया। हैरानी की बात ये है कि घटना के बाद छात्रा नेकरीब तीन पुलिस स्टेशनों के चक्कर काटे, लेकिन उसकीकोई सुनवाई नहीं हुई।

इस गैंगरेप की खबर सुर्खियों में आने के बाद छह पुलिसवालों पर गाज गिरी थी। अखबार की सुर्खियों में लड़की कानाम शक्ति, प्रदेश की निर्भया और पता नहीं क्या-क्या रखदिया गया था। मामले के तूल पकड़ने के बाद सरकार नेतीन टीआई और दो एसआई को निलंबित कर दिया था,जबकि एक सीएसपी को हटाया गया था। यहाँ तक कि इसमामले पर राज्य के मुख्यमंत्री ने भी नाराजगी जताई थी।

इस मामले में सरकारी अस्पताल के डॉक्टरों की बड़ीलापरवाही भी सामने आई थी। मेडिकल रिपोर्ट में उसे हीआरोपी बताते हुए लिख दिया कि पूरा घटनाक्रम उसकीसहमति से हुआ। यह बड़ी गलती जब जीआरपी ने चालानतैयार करते समय पकड़ी और संबंधित डॉक्टरों से जवाबमांगा तो आनन-फानन में दूसरी मेडिकल रिपोर्ट तैयार करउसे पीड़िता बताते हुए आरोपियों के द्वारा जबरदस्तीदुष्कर्म करना बताया गया।

मुझे लग रहा था राजगढ़ कोतवाली में भी ऐसा ही मामलाआया है और पुलिस पीिड़त महिला की रिपोर्ट नहीं लिखनाचाह रही। पीड़िता को ही गलत ठहराया जा रहा है। बड़ीबात नहीं की उसे ही आरोपी बना दिया जाए।

पुलिस ने उसकी रिपोर्ट नहीं लिखी। जब टीआई अरुणनागोत्रे से इस बारे में पूछा गया तो उन्होंने सीध्ो कहा – येध्ांध्ाा करती है और शहर के नामी व्यापारी हिरेंद्र भाईअजमेर वालों पर आरोप लगा रही है। जो खुद सहमति सेयह गंदा काम करती हो उसकी क्या रिपोर्ट लिखना।

अक्सर हम पत्रकारों की पुलिस से दोस्ती होती है। इसलिए हमने टीआई की बात को सच माना और चल दिए। मैं औरविशाल शर्मा जो मेरी बराबरी का था। वह एक इलेक्ट्रानिकचैनल में था। मेरे साथ रुक गया।

हम दोनों महिला के पास गए, उससे पूछा मामला क्या है?

उसने कहा- वो अजमेर वालों ने मेरे साथ गलत काम कियाहै।

मैंने कहा – अच्छा… और फिर पूछा आपका नाम क्या है?

वो बोली -योगिता।

मैंने कहा- योगिता जी, पर पुलिस वाले तो कह रहे हैं, आपकी मर्जी से हुआ है सब।

योगिता जी बोली- अच्छा ऐसा कह रहे हैं और क्या कह रहेहैं वो?

मैंने कहा- वो कह रहे हैं आप खुद गलत हैं।

वो समझ गई थी, मैं खुल कर नहीं बोल पा रहा था तो वोखुद ही बोल पड़ी।

क्या कह रहे थे? यही न कि मैं धंधा करती हूँ। हाँ करती हूँ। मेरे दो बच्चे हैं, पति प्रायवेट नौकरी में थे, उनकी पांच साल पहले मौत हो गई थी। उनके जाने के बाद कुछ समयतक तो समाज के लोगों ने साथ दिया, फिर सबने किनाराकर लिया। मैं खुद नौकरी की तलाश में निकल गई। जहाँनौकरी के लिए जाती मुझको गिद्दों की गंदी नजर का सामना करना पड़ता। नौकरी देने से पहले शर्त होती कि मैं उनके साथ सो जाऊँ। ऐसा नहीं है कि हर महिला के साथऐसा होता है। बेसहारा, बेबस और जरुरतमंद महिलाओं कोदेख कर उनका फायदा उठाने की ताक में हर कोई रहताहै। पहले जिनकी सहानभूति थी उनमें से कुछ जो मेरे पतिके दोस्त थे, मेरे रिश्तेदार और कई परिचित थे वे भी मुझकोबुरी नजर से देखने लगे। समय बीत रहा था। मेरे पति कीमौत को एक साल होने को आया था। जोड़ा हुआ सारापैसा खत्म होने को था। बच्चों को पढ़ाना और खिलानामुश्किल होता जा रहा था।

तभी मैं एक दिन एक ऑफिस में रिसेप्शन की जॉब के लिएगई। वहाँ के लोग अच्छे थे। मुझे जॉब पर रख लिया। मेरीनौकरी ठीक-ठाक चल रही थी। पैसे तो कम पड़ते थे, परहो रहा था गुजारा। साथ ही कर्ज बढ़ रहा था। मेडीकल,किराना और बच्चों की फीस। मुझे वेतन ही 6 हजारमिलता था। उसमें घ्ार चलाना मुश्किल था। बॉस बदले,नए बॉस आए थे रत्नेश जी। जिन्होंने पहले तो मेरे बारे मेंसब पता किया। फिर उन्होंने मुझे प्रमोशन का लोभ दिया।वो मुझसे बहुत अच्छी बातें करते। वो ऐसी बातें करते जैसेउन्हें मेरे हर दर्द का एहसास हो। मैं उनके जाल में फंस गई।उन्होंने मुझसे शादी का वादा किया। वो बोलते थे उनकीपत्नी से उनका तलाक हो गया है। मैं शादी के लिए तैयारथी। अब हम साथ समय बिताने लगे थे। उन्होंने मेराप्रमोशन तो नहीं किया, पर मेरी और मेरे बच्चों की जरूरतोंका ध्यान रखते। अब हम पति-पत्नी की तरह थे। बिन फेरेहम तेरे वाली बात थी, पर यह बातें फिल्मों में ही ठीकलगती हैं। असल में बेमानी हैं, ये सब बातें।

खैर, कुछ समय बात रत्नेश का ट्रांसफर हो गया, लेकिन हमारे  संबंधों के बारे में ऑफिस में अब हर किसी को पता था। हर कोई मेरा फायदा उठाना चाहता था। ऑफिस केलोगों की मेरे प्रति नजर बदल गई थी। नजर तो पहले हीबदल गई थी, पर रत्नेश के कारण कोई कुछ कहता नहींथा। उसके जाते ही सब बदल गया। मैंने भी नौकरी छोड़दी। मुझे लगता था, रत्नेश सब संभाल लेगा, लेकिन कुछदिनों बाद रत्नेश ने मुझसे किनारा कर लिया। उसका कोईतलाक नहीं हुआ था। वो अपनी पत्नी के साथ भोपाल मेंरहने लगा था। अब उसे मेरी जरूरत नहीं थी। मैं कुछ न करसकी। पर मैं इसे बलात्कार नहीं कहती, यह तो ध्ाोखा हैजिसमें गलती मेरी है मैंने खुद को समर्पित क्यों किया?

मामला यहाँ खत्म नहीं हुआ। अब मुझे रुपए की जरूरतथी और नौकरी भी नहीं थी। जो लोग मुझे प्यार के झांसे मेंफसाना चाहते थे, उनका रास्ता साफ था और मैं भी समझगई थी कि यदि घ्ार चलाना है तो कुछ तो करना होगा।यदि आज मैं कुछ न कर सकी तो कल को मेरे बच्चों कोकोई गलत राह चुननी होगी। उनको पढ़ाने मैंने भोपालभेजा और खुद को बेचना शुरू कर दिया।

विशाल और मैं चुप थे। हिम्मत करके पूछा- फिर आज क्याहुआ?

वो बोली – कल दो लोग आए थे। उनसे रुपए भी तय हो गएथे। मैं वहाँ पहुँची, जहां उन्होंने बुलाया था। वहाँ दो नहीं 10लोग थे। जिन्होंने मुझ पर पूरी हैवानियत दिखाई। उसे भीबलात्कार कहते हैं, पर चुप थी, पैसे जो चाहिए थे। रात भर अजमेर वालों के ब्यावरा रोड वाले फार्म हाउस पर यह सब चलता रहा। सुबह जब मैंने रुपए मांगे, तो दो कमीने जिन्हेंमैं जानती भी नहीं उन्होंने मुझको मारा और वहाँ से भगादिया। ये बलात्कार ही था न? मेरी मर्जी थी, पर उसके बदलेमुझे रुपए चाहिए।

वो बोली -भैया मुझको तो मेरे रुपए चाहिए बस। नहीं मिलेतो मैं क्या करूं? पैसे दिए तो वैश्या हूँ और नहीं दिए तो मैंपीड़िता। ऐसा नहीं हैं कि यह सिर्फ मेरे साथ हुआ है, मेरेजैसी कई महिलाओं के साथ होता है ऐसा। जो खुशी, मजेया शौक के लिए नहीं करती ये सब। मजबूरी होती है, जिन्हेंलोग बुलाते हैं, जो मन हो करते हैं, हम लाश की तरह सबसहते हैं और कई बार पिटाई करते हैं और रुपए भी नहींदेते।

जब हम बेचते हैं खुद को, तो खुद से घृणा हो जाती है। खुदके साथ बलात्कार करती हैं हम। हमारे लिए कोई कुछ नहीं करता। हमें गाली देना आसान है, हमारा किरदार निभाना कठिन। हम किससे कहें मी-टू और कह भी दें तो कौन सुनेगा?

 

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