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हे राम मैं तुझसे क्या माँगूँ…..

 

 

[mkd_highlight background_color=”” color=”red”]शैलेश तिवारी[/mkd_highlight]

 

 

आज बात शुरू करते हैं….. साहिर लुधियानवी के लिखे उस गीत से… जो भजन के रूप में आज भी…. लोकप्रिय और कर्ण प्रिय है…..। उस राम को पुकार लगाई जा रही है…. जो रोम रोम में बसने वाले राम हैं…. जगत के स्वामी हैं… अंतर्यामी हैं… यानी घट घट में निवास करने वाले हैं… उस राम से क्या मांगा जाए… जो सब कुछ जानते हैं…. इसी लिए तो हम उन्हें मानते हैं….। बात उन्हीं वाल्मीकि के राम की…. जो रावण को परास्त कर सोने की लंका जीत लेते हैं… तो लक्ष्मण उनसे आग्रह करते हैं.. उस पर राज करने का… तब वाल्मीकि के राम कहते हैं..

“जननी जन्म भूमिश्च.. स्वर्गादपि गरियसी… “

अर्थात मेरी जन्म भूमि अयोध्या की तुलना में स्वर्ग का राज्य भी तुच्छ है…। ये तो मात्र लंका है…..। ऐसे राम के मंदिर का भूमि पूजन… हाल ही में हो जाना… करोड़ो करोड़ भारतवासियों के लिए… गर्व और गौरव का क्षण रहा…. उसी दौरान राम राज्य की चर्चा भी हुई….। जिस का जिक्र मार्च 1930 में…. महात्मा गांधी ने… नवजीवन में अपने लिखे लेख में किया था….। जिसमे आर्थिक असमानता का उल्लेख भी था… तो हर वर्ग के लिए सहूलियतें दिए जाने की चर्चा भी थी…।
यही चर्चा संत गोस्वामी तुलसी दास जी ने भी अपनी एक रचना में की है….

मणि माणिक्य महंगे किए….
सहजे तृण, जल , नाज..

….. अर्थात उस दौर की विलासिता की वस्तुओं को तो राम राज्य में महंगा किया.. लेकिन पशुओं के उपयोग में.. आने वाले घास और मनुष्य के जीवनोपयोगी पानी और अनाज की उपलब्धता सुनिश्चित कराई गई…।तब जाकर तुलसी ने आगे की पंक्ति में राम को गरीबों का हितैषी बताया….

” तुलसी सोई जानिए, राम गरीब नबाज.. “

वर्तमान हालात इसके उलट ज्यादा नजर आते हैं….. कार का लोन चाहने की इच्छा मात्र से…बैंकर की लाइन आपके घर के सामने लग जाएगी…… और शिक्षा के लोन लेने के लिए….आपकी चप्पलें घिस जायेंगी….. । तुलसी के राजा रामचंद्र जी… हर एंगिल से प्रजा पालक की उस भूमिका का निर्वाह करते नजर आते हैं… जिस राम के राज्य की चर्चा आज भी होती है… और हो भी क्यों नहीं…. तुलसी बताते हैं कि… सूर्यवंशी कुल में जन्म लिए राजा को… टैक्स भी सूरज की तरह ही लेना चाहिए… जो नदी नालों… तालाबों… समुद्रों….. और तो और हाथ की अंजुरी के जल को भी अपनी किरणों के माध्यम से… सोखता है…. लेकिन उसको सोख कर अपने पास नहीं रखता… बादल बनाकर… उस जगह पानी बरसाता है… जहाँ पानी की जरूरत होती है….। यानि सामर्थ्यवान से कर लेकर…. उसको योजनाओं का बादल बना कर…. उन लोगो पर बरसा देना… जिन्हें रोजगार की… दो जून की रोटी की जरूरत है…। एक तरह से यह काम समाज की आर्थिक विषमताओं को पाटने जैसा है… मजे की बात है कि… सूरज के जल सोखने के काम को कोई नहीं देखता…. बादल बरसते हुए सबको नजर आते हैं…… तभी गोस्वामी जी की लेखनी लिखती है…..

“बरसत हरसत सब लखें, करसत लखे न कोय…..
तुलसी प्रजा सुभाव ते, भूप भानु तो होय…. “

अर्थात राज्य जब कर वसूली करे तो… प्रजा को मालूम भी नहीं पड़ना चाहिए कि कर की वसूली हो चुकी है… लेकिन जब व्यवस्था कोई जनहितैषी योजना शुरू करे… या उसका कियांवयन कर रही हो…. तो सबको मालूम होना चाहिए…. कि शासन ने उनके हित में कोई कदम उठाये हैं…। वर्तमान व्यवस्था को राम की टैक्स और कार्य प्रणाली से सबक लेने की जरूरत है….। उनकी लेखनी ने राजा के लिए बहुत सी बातों का उल्लेख कर…. राजा रामचंद्र के राम राज्य की अवधारणा को स्पष्ट किया है…. लेकिन आजादी के पहले भी और आजादी के बाद भी राम राज्य…. की चर्चा तो होती रही… लेकिन वैसा मुखिया नहीं मिला जिसका जिक्र तुलसी ने…. 264 ग्रंथो के अध्ययन के बाद…. लिखी अपनी रामचरित मानस के…. अयोध्या कांड में किया है….

मुखिया मुख सो चाहिए, खान पान में एक।
पाले पोसे सकल अंग, तुलसी सहित विवेक।।

स्वराज आने के बाद… समाज को अलग अलग बाँटकर…. सत्ता बनाए रखने की कोशिशें… राम राज की अवधारणा के खिलाफ ही नजर आती हैं। संत तुलसी ने जिस राम राज्य को अपनी एक चौपाई में… दर्शाया है…. वह तो और भी गज़ब की है…

” दैहिक, दैविक, भौतिक तापा… ।
राम राज काहू न व्यापा…।। “

मौजूदा दौर में…. में तीनों ताप अपनी प्रखरता के साथ… देश के अलग अलग हिस्सों में अपना तांडव दिखा रहे हैं…. जिनसे पार पाने के लिए… सत्ताधीशों में कोई व्याकुलता नजर नहीं आती….किसी मजबूत इच्छा शक्ति का अभाव भी…..नजर आता है…। दैहिक ताप से निपटने के लिए… हमारे देश की सरकार का स्वास्थ्य बजट प्रावधान ….. बहुत ही नीचे के स्तर को छू रहा है…. उससे ज्यादा बजट तो निजी अस्पतालो का होता है…। सूखा, बाढ़, महामारी जैसे दैविक ताप …..साल दर साल सुरसा के मुख की तरह विकराल होते जा रहे है…..। महंगाई और बेरोजगारी जैसे भौतिक ताप…. अपने उच्च सूचकांक को छू रहे हैं…..। . … हमारे नायक राम के राज की आशा तो… वक्त वक्त पर जगाते हैं… लेकिन जनता के हाथ निराशा ज्यादा लगती आई है…। इस जनता की निराशा को उस गीत में भी गाया गया है….जिसका ये बंद उल्लेखनीय हो जाता है….
आस का बंधन तोड़ चुकी हूँ. …
सब कुछ तुझ पर छोड़ चुकी हूँ
तू जाने तेरा काम…
जगत के स्वामी.. ओ अंतर्यामी…..।

 

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