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सिंधिया की खलनायक वाली छवि बनाने में कामयाब होते दिग्विजय सिंह

(कीर्ति राणा)

मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में अभी जितने लाचार कमलनाथ नजर आ रहे हैं उतने असहाय तो इस ऐतिहासिक फोटो में नजर आने वाले न तो श्यामाचरण शुक्ल रहे, न मोतीलाल वोरा और न ही दिग्विजय सिंह रहे।कमलनाथ और ज्योतिरादित्य में वैसी जोड़ी तो शायद ही बने जैसी मोती-माधव की जोड़ी रही।पटी तो दिग्विजय सिंह और माधवराव सिंधिया में भी नहीं। दस साल सत्ता में रहे दिग्विजय सिंह का आधा समय तो कभी वोराजी को मनाने, कभी माधवराव की माँगों को पूरा करने तो कभी शुक्ल बंधुओं के नख़रे उठाने में बीता। ये जग जाहिर था कि माधवराव और दिग्विजय सिंह में नहीं पटती है इसका एक कारण रियासत वाली ठसक भी रही। जैसे अब किसी कोने से भी श्रीमंत शब्द कानों में पड़ते ही ज्योतिरादित्य के चेहरे की चमक बढ़ जाती है। कुछ ऐसा ही मिजाज माधवराव का रहा। इंदौर एयरपोर्ट पर प्रेस से चर्चा हो या एमपीसीए की बैठक हो जिस तरफ से ‘महाराज साब’ की आवाज आती पहले उधर ही गर्दन घूमती थी।
दिग्विजय सिंह सीएम और सिंधिया केंद्रीय मंत्री रहे तब दोनों में नहीं पटने के बाद भी आज जैसे हालात सार्वजनिक रूप से देखने में नहीं आए।अभी जो 31 दिसंबर को मुख्य सचिव बीपी सिंह सेवानिवृत्त हो रहे हैं। दिग्विजय सिंह ने तब इन्हें कलेक्टर ग्वालियर पदस्थ किया था। किसी सिलसिले में महल गए थे माधवराव जी से मुलाकात करने, आधा घंटा बीतने के बाद भी जब मुलाकात नहीं हो पाई तो लौट आए। अंदर बैठा आयएएस जाग गया, वह अंदाज माधवराव को नागवार गुजरा, उन्होंने दिग्विजय सिंह को अपनी नाराजी का अहसास कराया और अगले कुछ दिनों में बीपी सिंह ग्वालियर के भूतपूर्व कलेक्टर हो गए।
अब ज्योतिरादित्य उसी रियासत के प्रमुख हैं लेकिन इधर एक और एक ग्यारह हो गए हैं। इस ऐतिहासिक फोटो में उस वक्त कमलनाथ जरुर ‘अभूतपूर्व’ मुख्यमंत्रियों वाले इस फोटो में कोई हैसियत न रखते हों लेकिन जिस तरह दिग्विजय सिंह के साथ कंधे से सट कर खड़े हैं, वक्त के बदले मिजाज में दिग्विजय सिंह उन्हें कूटनीति के युद्ध में हर बर्छी-तलवार से बचाने के लिए ढाल बन कर खड़े नजर आ हैं। वैसे तो बाबूलाल गौर को सीएम बनाने पर उमा भारती ने भी कहा था मैं चट्टान बन कर गौर के पीछे खड़ी रहूँगी लेकिन उनके कहने और दिग्विजय सिंह के कुछ ना कहने के राजनीतिक उतार-चढ़ाव का समय साक्षी है।
मध्य प्रदेश में चुनाव से पहले जब कमलनाथ को प्रदेश कांग्रेस की कमान सौंपी जानी थी तब ज्योतिरादित्य के समक्ष भी इस पद की ज़िम्मेदारी के साथ सभी तरह के दायित्व अपने बलबूते पर करने का प्रस्ताव रखा था लेकिन उन्होंने साफ इंकार कर दिया तब समन्वय के लिहाज से कमलनाथ को अध्यक्ष और सिंधिया को चुनाव प्रचार समिति का दायित्व दिया गया। कांग्रेस आलाकमान का मानना था कमलनाथ कांग्रेस को आर्थिक आधार पर मजबूती दे सकते हैं लेकिन फेस वैल्यू सिंधिया की है।तब ऐसा कोई मौखिक समझौता भी नहीं था कि कांग्रेस सत्ता में आई तो सिंधिया को सीएम बनाया जाएगा, परंपरा भी यही रही है कि प्रदेश संगठन के अध्यक्ष को ही प्राथमिकता मिलती है और मप्र में तो पंद्रह साल सत्ता से बाहर रही कांग्रेस कंगाली के दौर में थी, वैसे में कमलनाथ ही सोना-चाँदी वाले च्यवनप्राश साबित हुए।
सीएम पद को लेकर सिंधिया के बाल हठ का ही नतीजा रहा कि तीन दिन तक कोई फैसला न होने पर अंतत: केंद्रीय संगठन ने पर्यवेक्षकों को हर विधायक से रायशुमारी के लिए भोपाल भेजा।कांग्रेस के जीते हुए 114 विधायकों में से सिंधिया गुट के 17 विधायकों सहित 5 अन्य कुल 22 विधायकों ने ही सीएम के लिए सिंधिया का नाम लिया बाकी सभी विधायक कमलनाथ के पक्ष में हैं यह बताए जाने के बाद ही सिंंधिया के तेवर ठंडे पड़े। जो रास्ता गेहलोत-पायलट के बीच समन्वय का जो रास्ता राजस्थान में निकाला गया, डिप्टी सीएम का वही प्रस्ताव सिंधिया को भी दिया गया था लेकिन लोकसभा में राहुल गांधी के साथ बैठने वाले सिंधिया को यह प्रस्ताव अपने कद से छोटा लगा, उन्हें यह भी याद नहीं रहा कि कमलनाथ उनके पिता के साथ केंद्र में मंत्री रह चुके हैं। बताते हैं कि डिप्टी सीएम पद के लिए उन्होंने अपने किसी समर्थक विधायक ( तुलसी सिलावट) का नाम दिया जिसे पद की वरिष्ठता को देखते हुए खारिज कर दिया गया।
दिग्विजय सिंह भी तो मन से यही चाहते थे, वे सिंधिया के खिलाफ दिल्ली में मुखर होते तो माना जाता कि इनकी तो बाप से ही नहीं पची तो अब बेटे से खुन्नस निकाल रहे हैं। कमलनाथ तब से राजनीति में हैं जब ज्योतिरादित्य की तरह राहुल भी केजी वन के स्टूडेंट रहे होंगे। इंदिरा गांधी, संजय गांधी, राजीव गांधी के बाद सोनिया गांधी के विश्वासपात्र कमलनाथ जब अपना दुखड़ा रोएँगे तो उनकी बात पर ये सारे बड़े नेता अधिक भरोसा करेंगे। ऐसा होने का मतलब है सिंधिया की चाकलेटी चेहरे पर कील-मुँहासे नजर आना। मंत्रियों के विभागों के वितरण का विवाद निपट जाएगा, दिग्विजय सिंह भी असंतोष की हाईराइज बिल्डिंग पर इस्तीफा हाथ में लेकर कूदने को आतुर राज्यवर्द्धन सिंह जैसे विधायकों को मना लेंगे। कारण पंद्रह साल सत्ता सुख से वंचित रहने के बाद कोई भी नहीं चाहेगा कि इस अप्रत्याशित आनंद से वंचित हो जाएं।

अभी तो विस अध्यक्ष चुनाव वाली
अग्नि परीक्षा में भी पास होना है

विभाग वितरण वाला विवाद निपटने के बाद अगली चुनौती है विधानसभा अध्यक्ष के चुनाव में कांग्रेस प्रत्याशी एनपी प्रजापति 121 मतों से जीत सकेंगे या नहीं। कांग्रेस की इस सिर फुटौवल का लाभ लेने के लिए भाजपा ने भी वशीकरण मंत्र के अखंड जाप शुकु कर दिए हैं। मैं जोड़तोड़ से सरकार बनाने में विश्वास नहीं करता जैसा बयान देकर एक तरह से मोदी-शाह के गोवा कांड का मखौल उड़ाया है लेकिन छह महीने बाद होने वाले लोकसभा चुनाव से पहले भाजपा का नेतृत्व क्यों नहीं चाहेगा कि जैसी चाल कर्नाटक में चलना शुरू की है वैसे ही गेम प्लान को नरोत्तम मिश्रा के माध्यम से क्यों नहीं अंजाम तक पहुँचाया जाए। भाजपा की तैयारी है कि गोपाल भार्गव को विधानसभा अध्यक्ष पद के लिए खड़ा किया जाए । भाजपा के विधायकों की संख्या है 109 उसे भार्गव को जितवाने के लिए 7 वोट का ही तो इंतजाम करना है। बसपा के 2 अन्य 5 विधायक (एक सपा का और 4 कांग्रेस के निर्दलीय) असंतोष के कोपभवन में बैठे इधर उधर सामान फेंक रहे हैं, कमलनाथ से लेकर दिग्विजय, सिंधिया अपने अंह के अलाव में हाथ तापने में इतने मस्त हैं कि यह शोरशराबा सुन ही नहीं पा रहे हैं जबकि भाजपा के अय्यार कोप भवन की वीडियो रिकॉर्डिंग करने में लगे हुए हैं। बिना शर्त कांग्रेस को समर्थन देकर डॉ हीरा अलावा से लेकर अन्य बागी भी कारवाँ गुजर गया, ग़ुबार देखते रहे जैसी हालत में हैं।चुनाव प्रचार में अपरंपार खर्च करने वाली भाजपा के ख़ज़ाने में इतना माल तो अभी भी है कि वह ग्वालियर मेले से बेहतरीन फ़ोर वीलर, अच्छी नस्ल के घोड़े से लेकर खच्चर तक खरीद सकती है। 7 जनवरी को विधानसभा अध्यक्ष के चुनाव में किस प्रत्याशी को कितने मत मिलेंगे इससे साबित हो जाएगा कि ‘कमल’ अनाथ तो नहीं कर देगा। रायशुमारी में सिंधिया को जब उनके गुट के 17 विधायकों के साथ कमलनाथ-दिग्विजय गुट के विधायकों में से 5 का मत मिल सकता है तो विस अध्यक्ष चुनाव में भी कुछ मत किधर भी लुढ़क सकते है।

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