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झुकी नज़र…

(कहानी समीक्षा) झुकी नजर..

#me too..आकाश माथुर की किताब..। इसकी ही आठवीं कहानी है..झुकी नज़र…।
दो दोस्तों के संवाद..में कथानक का ताना बाना बुना गया है…। चाय की चुस्कियों के बीच..कहानी का जन्म..लेकिन कहा गया…अतीत का..यानि कि फ्लेश में चलती कहानी..। मानव सभ्यता की शुरुआत से..जो समस्या समाज में..कोढ़ की तरह चिपकी है…। जिसे एक ऐसा नासूर..कहा जा सकता है..जो लाइलाज है..। कथानक की पृष्ठ भूमि बहुत सामान्य है..जिसे जिस्म फरोशी कहा जाता है..। परिजनों द्वारा ही ये घृणित काम..आज भी देश के कई समाजों में प्रचलित है..। फिर ऐसा कथानक जो पूरी तरह सामान्य हो..उस को लिखने की जरूरत आज क्यों..? क्या सिर्फ इसलिए कि…विषय ज्वलंत है..? हो सकता है… कहानी पढ़कर यही विचार पुख्ता होता हो पाठक के मन में..। लेकिन साधारण या सामान्य सी दिखने वाली ये कहानी..कुछ असामान्य से संदेश भी देती है..।
पहला संदेश तो ये है कि..जिस्म फरोशी करने वाले परिवार का युवा मन..क्या सोचता है… कैसी परिस्थितियों से गुजरता है…। ये बातें लेखक ने अपनी कहानी में…गढवाहट में बाइक से सफर कर रहे… तीन दोस्तों की यात्रा से..प्रतिबिंबित की है। असल संदेश है परिवार के किशोर वय…की संगति पर नज़र रखना। जैसी संगत वैसी रंगत…। लेकिन वह आज की touch me not… पीढी पर संभव नही। ये आज के समाज की विडंबना है चाहाकर भी नियंत्रण नहीं… किया जा सकता…। लेखक की कल्पना शीलता प्रणाम योग्य… तब हो जाती है… जब कहानी का तीसरा दोस्त…. आज शनिवार है. कहकर घृणित काम को करने से इंकार कर देता है..। यही वह सूचक बिंदु है. जो कहानी का उजला पक्ष है और प्रमुख संदेश भी..। समय रहते बच्चों को..भगवान से जोड़ दें..उनके जीवन के केंद्र में भगवान आ जाए और परिधि पर संसार हो जाए..तब वह अपना चरित्र भी बचा लेता है… और आत्म विश्वास भी.. सुरक्षित कर लेता है..। संसार के दुर्गुणों.. के हमले को रोकने में सक्षम भी बन जाता है..। नई पीढी पर नियंत्रण पाने का सही संदेश देती कहानी के लिए आकाश आपको और आपकी कलम दोनों बधाई के पात्र हैं…।

कहानी समीक्षा— शैलेश तिवारी वरिष्ठ पत्रकार

(कहानी )झुकी नजर…

मीटू को लेकर लिखना शुरू किया था। पहली कहानी लिखी। उसे फेसबुक पर डाला तो कई लोगों ने प्रतिक्रिया व्यक्त की, कुछ ने फोन भी किए। इसी दौरान मेरा एक दोस्त आदेश मुझसे मिला। आदेश काफी लंबे समय से मुझसे नहीं मिला था। आदेश दोस्तों को हमेशा उत्साहित करता और हमेशा खुश रहता। फिलहाल वह गुड़गांव में रहकर नौकरी कर रहा था।
लंबे समय बाद मिले मेरे दोस्त आदेश से चाय की दुकान पर बहुत सारी बातें कीं। कहने लगा -तुम यहाँ कहाँ लगे हो मीटू-वीटू में, मेरे साथ चलो गुड़गांव में पोहा बेचेंगे। बोला- भाई बड़ी डिमांड है वहाँ पोहे की।
मैंने बोला – और क्या करेंगे? वो बोला मैं तो ऑफिस चला जाऊंगा, तुम संभालना स्टाल। चाय बेचना, पोहे और समोसे बेचना। बढ़िया कमाओगे। मजाक में तय हो गया। इस बार जब आदेश होली पर आएगा तो दो लड़के जो पोहा, समोसा बनाना जानते हों, उनके साथ मैं गुड़गांव जाऊंगा। वहाँ पोहे का स्टाल लगेगा। मस्त दिन भर धंधा और रात को मस्ती, जो अक्सर स्कूल के दोस्त करते हैं। बात करते-करते चाय वाला चाय ले आया था। अब हम दोनों के हाथ में चाय का गिलास था। उसने पहली चुस्की ली और बोला – आकाश तुझे एक बात बताऊं, जो पहले कभी किसी को नहीं बताई। तुझे याद है मैंने जब कॉलेज के समय में बाइक ली थी। पापा ने बाइक इसलिए दिलाई थी कि मैं रोज मम्मी को स्कूल छोड़ने लेने जाऊं। पापा तो सुबह से भोपाल के लिए निकल जाते थे। मम्मी को स्कूल जाने के लिए कभी ऑटो तो कभी पैदल जाना पड़ता था। बाइक लेने के कुछ समय बाद तक तो मैं मम्मी को स्कूल छोड़ने और वहाँ से लाने का काम करता रहा। कुछ समय तक ऐसा ही चला, लेकिन उसके बाद मम्मी को फिर से ऑटो से ही आना-जाना पड़ता था, क्योंकि अब बाइक दोस्तों के साथ घूमने और पापा को यह दिखाने के लिए कि मैं बाइक से कोचिंग जाता हूँ।  मैंने बाइक गणेश चतुर्थी को खरीदी थी। नई बाइक गणेशोत्सव के दौरान खूब घुमाई। अनंत चौहदस के बाद दशहरा और फिर दीपावली आई। नई बाइक की पूजा करने में बहुत मजा आया था। बात दीपावली के अगले दिन याने पड़वा की है। इस दिन अक्सर हम अपने मित्रों, रिश्तेदारों, ऑफिस के लोगों को दीपावली की शुभकामनाएं देने के लिए मिलने जाते हैं। मेरे घर भी अपने स्कूल के दोस्त निरंजन और वीरेंद्र आए। हैप्पी दीपावली बोला और बोले चल घूम के आते हैं।  इस समय मेरी बहुत कीमत थी क्योंकि सारे दोस्तों में पर्सनल बाइक सिर्फ मेरे पास ही थी। बाकी दोस्त भी बाइक लेकर आते थे लेकिन कभी पापा तो कभी भैया से छुपके और कुछ बहनों की स्कूटी लेकर आ जाते थे, पर अपनी गाड़ी सिर्फ अपनी थी। उस दिन भी वह आए और कहने लगे चलो घूमने चलते हैं। मुझे कहीं जाने के लिए किसी से पूछने की जरूरत नहीं थी, बस बताना होता था कि मैं कहीं जा रहा हूं। कभी-कभार घरवाले पूछ लेते थे, तो कभी सच और झूठ बोलकर निकल जाता था। उस दिन उन्होंने पूछा कहाँ जा रहा है तो मैं बाहर आया।
निरंजन और वीरेंद्र से पूछा कहाँ चलना है। उन्होंने बोला – पास ही में जो गांव है समदगंज वहाँ चलना है और एक ट्रॉली वाले से गिट्टी की बात करके आना है। मैंने यही बात घर पर बताई और निकल गए। अब गाड़ी में पेट्रोल डलवाना था। शर्त यह थी कि जिसका काम उसी का पेट्रोल। यह तो नियम सा होता था। नियम के मुताबिक 20 रुपए का पेट्रोल गाड़ी में डलवाया गया। दूरी कम थी, उस समय पेट्रोल भी 36 रुपए लीटर था। पेट्रोल लिया और गाड़ी समदगंज की तरफ चल पड़ी। गांव पहुँचे। मैंने पूछा कि अब मिलना किससे है यहाँ। तो निरंजन ने कहा चंदू से मिलना है। वो गिट्टी-रेत की ट्राली चलाता है। एक ट्राली गिट्टी की बात करना है। मैंने पूछा -घर देखा है वीरेंद्र बोला नहीं। पूछ लेंगे किसी से। बात गाड़ी पर ही हो रही थी। एक बाइक तीन लोग। गांव की पगडंडी। जिस पर बाइक ऊपर नीचे होते हुए बहकते-संभलते धीरे-धीरे चल रही थी। गांव की पगडंडियां घुमावदार सर्पाकार होती हैं। जिनके बीच में एक हिस्सा उठा हुआ होता है और आसपास के दो हिस्से दबे होते हैं। जहाँ आपको गाड़ी चलानी होती है। यहाँ ट्रैफिक रूल अपने आप फालो  होते हैं। एक हिस्से पर जाने वाले और दूसरे हिस्से पर आने वाले लोग
चलते हैं। यहाँ ओवरटेक जैसी कोई चीज नहीं होती। बस चलते रहिए और हम भी चलते जा रहे थे। मैं उस गांव में कुछ लोगों को जानता था। हमारे एक सीनियर सिद्धांत उसी गांव के थे। वे थे तो सीनियर, पर मेरे मित्र भी थे। मेरे उनसे ही नहीं उनके परिवार के हर एक सदस्य से बहुत अच्छे संबंध थे। यही कारण था कि मैंने कहा निरंजन क्यों न सिद्धांत भैया से चंदू के घर का पता पूछ लिया जाए।  वीरेंद्र बोला – नहीं-नहीं सिद्धांत भैया तो मुझे आज सीहोर में ही दिखे थे। मैंने कहा कोई बात नहीं एक काम करते हैं। उनके घर चलते हैं। वहां उनके पापा होंगे उनसे पता पूछ लेंगे। इस बार निरंजन बोला -तू टेंशन मत ले, अपन पूछकर पहुँच जाएंगे। ऐसे भी उनके घर जाएंगे तो आधे घंटे से ज्यादा समय बर्बाद हो जाएगा। मुझे यह तर्क ठीक लगा। अब हम सिद्धांत भैया के घर नहीं जा रहे थे। हम आगे बढ़ गए। जिससे भी हम चंदू के घर का पता पूछते वह बड़े गौर से हमें देखता और पता बता देता। पूछते-पूछते हम एक झोपड़ी के पास पहुँचे। कुछ अजीब ही बनावट थी उस झोपड़ी की। गांव की मुख्य सड़क की तरफ दीवार थी, जिस पर कोई खिड़की-दरवाजा नहीं था। आमतौर पर सड़क की तरफ लोग घर का मुख्य दरवाजा बनाते हैं, पर वहां ऐसा नहीं था। दूसरी अजीब बात यह थी कि पुराने घरों और झोपड़ियों में बाहर आंगन होते हैं। जो घर के बाहर सामने होता है। यहाँ भी आंगन था। जो घर के पीछे था। जिसके बीच एक नीम का पेड़ भी था।
मैंने आंगन में गाड़ी खड़ी कर दी। आंगन में तीन बच्चे थे। एक 13-14 साल का लड़का, दूसरा 9 या 10 साल का और एक छोटी सी बच्ची। जिसकी उम्र 5 या 6 साल रही होगी। दोनों छोटे बच्चे गाड़ी रुकते ही हमारे पास आए और बोले चीज के लिए पैसे दो। बड़ा अजीब लगा, पर मैंने कुछ कहा नहीं। वहीं जो बड़ा लड़का था, वह हमसे नजरें चुरा रहा था। नजरें बचाकर वह हमें देख भी रहा था। वो नीम के पेड़ की छाल को नाखून से कुरेद रहा था। मैंने ज्यादा ध्यान नहीं दिया इन चीजों पर, और हम आंगन से होते हुए घर की दूसरी तरफ पहुँच गए। दरवाजा खटखटाया बीड़ी पीते हुए लगभग 40 साल का एक व्यक्ति बाहर आया। मुस्कुराया और बोला, हाँ।
निरंजन बोला -हमें प्रतीक भाई ने भेजा है। चंदू भाई कौन हैं।
बीड़ी का धुआं छोड़ते हुए, आंखे छोटी कर, खुद पर और हम पर अहसान करते हुए वह बोला। मैं ही हूँ.. चंदू। बताओ क्या काम है?
निरंजन ने चंदू को एक तरफ बुलाया, विरेंद्र भी उसके साथ चला गया। कुछ देर तक तीनों की बात हुई। बात ठीक से सुनाई नहीं दे रही थी। फिर चंदू हमें उसके घर के अंदर ले गया। जहाँ दो खटियां लगी थीं। एक खटिया पर मैं अकेला और एक पर निरंजन, विरेंद्र और चंदू तीनों बैठ गए। कुछ देर बाद तीनों फिर बाहर चले गए। अब उस कमरे में अकेला मैं था। बाहर से आवाज आ  रही थी। हम 100 देंगे, चंदू कहता 150 से कम नहीं। फिर निरंजन कहता 120 दे देंगे। ऐसा चलता रहा। इसी बीच एक लंबी चौड़ी महिला कमरे में आई। जिसे देखकर में घ्ाबरा गया। उसके बाल गीले थे। शरीर पर भी पानी था और उसने पूरे कपड़े भी नहीं पहने थे। मैं डर गया। वो दरवाजे के एक तरफ लगे छोटे से आइने में खुद को देखकर तैयार होने लगी। मैं उसकी तरफ डर के कारण देख भी नहीं पा रहा था। जिसका घर है वो बाहर खड़ा है और मेरे दो दोस्त भी। मेरा क्या होगा यह डर हावी था? मैं उठकर बाहर नहीं जा सकता था। दरवाजे के पास तो
वो महिला खुद तैयार हो रही थी। तभी आहट हुई और निरंजन, विरेंद्र और चंदू तीनों अंदर आ गए। डर बढ़ा, लेकिन जैसे ही तीनों मुस्कुराए, मैं कुछ सहज हुआ। अब उस कमरे में पांच लोग थे। मैं, निरंजन, विरेंद्र, चंदू और वो महिला। महिला को लेकर मेरे मन में कई सवाल उठ रहे थे। ये ऐसा कैसे कर सकती है। महिला पूरी तरह से वहीं तैयार हुई और अंदर एक कमरे में चली गई।  जहाँ मैं बैठा था उस कमरे में तीन दरवाजे थे। एक बाहर जाता था। दूसरा जिस खाट पर मैं बैठा था, उसके ठीक पीछे मुझसे चार-पांच फीट की दूरी पर, और तीसरा मेरे उल्टे हाथ की तरफ, जिसमें वह महिला गई थी। वो गई, उसके अगले ही पल चंदू ने निरंजन की और इशारा किया। निरंजन उठकर उसी कमरे में चला गया जिस कमरें में वह महिला गई थी। कमरे में सन्नाटा था। कुछ देर बाद निरंजन आया और फिर विरेंद्र भी उसी कमरे में चला गया। अब निरंजन मेरे पास आकर बैठ गया। मैं अब तो सब समझ ही गया था कि हम चंदू के पास गिट्टी की ट्राली की बात करने नहीं आए हैं। माजरा क्या था, ये मुझे बताने की जरूरत नहीं। अब निरंजन जो खुश था। वो मुझे कमरे में जाने के लिए कह रहा था। उसने कहा सिर्फ 120 रुपए ही लगेंगे। मैंने कहा नहीं। मैंने उससे पूछा ये कौन है तो उसने बताया चंदू की पत्नी है।
मैंने कहा चलो यार यहाँ से। कहाँ-कहाँ ले आते हो यार, किसी को पता चल गया तो…
इतने में विरेंद्र भी बाहर आ गया था। अब विरेंद्र और निरंजन दोनों मिल कर मुझे कमरे में जाने के लिए कह रहे थे। वो कह रहे थे, पैसे की चिंता मत कर वो हम दे देंगे, लेकिन मैं ना जाने के लिए बहाने तलाश रहा था। मैं अभी भी डरा हुआ था। फिर मुझे भगवान ने बचाया मुझे याद आया आज तो शनिवार है और ऐसे दिन कोई गलत काम करते ही नहीं। यही बात मैंने उन्हें कह दी। अब निरंजन और विरेंद्र ने मुझसे जिद करना बंद कर दिया था। कमरे में पता नहीं तीनों क्या बात कर रहे थे। उस समय डर के कारण कुछ याद नहीं रहा। तभी वो महिला बाहर आई। जो खाट पर मेरी पीठ की तरफ पीठ करके बैठ गई। उसने मेरे हाथ पर हाथ रख दिया। मेरा डर जो कुछ देर पहले ही कम हुआ था वो फिर बढ़ने लगा था। मैंने धीरे से
हाथ हटा लिया। इसके बाद निरंजन ने चंदू को 250 रुपए दिए। हम बाहर आए। दो छोटे बच्चे बाहर थे,जिन्होंने फिर से चीज के पैसे मांगे। इस बार चंदू ने कहा अपने ही बच्चे हैं। एक बड़ा और है वो पीछे होगा। इनको इनाम दे दो। विरेंद्र ने 10-10 रुपए दोनों को दिए। जब हम पीछे आए तो वो 13-14 साल का लड़का मुंह छुपाए  खड़ा था और अब भी नीम के पेड़ की छाल को नाखून से कुरेद रहा था। उसको अब मैंने ध्यान से देखा। मुझे लगा, इसे सब पता है कि अंदर हुआ क्या है। उस बच्चे को शर्मिंदगी हो रही थी। वह असहज महसूस कर रहा था। शायद गांव के दूसरे बच्चे उसके साथ खेलते भी नहीं थे, वो अकेला था। किसी से कुछ नहीं कह सकता था। अंदर जो हो रहा था। वो उसके लिए मानसिक दुष्कृत्य सा था। जो उसके साथ हो रहा था और उसके मन-मस्तिष्क को जकड़े, उसको अंदर से तोड़ रहा था। वो किससे कहता मी-टू। उसकी सुनने वाले उसके मां-बाप ही उसे मानसिक रूप से प्रताड़ित कर रहे थे। कौन सुनता उसकी। उसकी झुकी नजर मुझे आज भी घूरती हैं।
किस्सा खत्म हो चुका था मेरी चाय खत्म हो चुकी थी, लेकिन आदेश की चाय वैसी की वैसी थी। जिसमें से एक घूट ही कम हुआ था। चाय ठंडी भी हो गई,  उस पर मलाई जम चुकी थी और आदेश के चेहरे का रंग फीका था।

 

कहानी समीक्षा— शैलेश तिवारी वरिष्ठ पत्रकार

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