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रेप राजनीति का विषय नहीं…

 

विगत कुछ दिनों से कुछ बलात्कार की घटनाओ पर देश भर में कड़ी प्रतिक्रिया
जनता द्वारा अभिव्यक्त की गई. सोशल मीडिया भी ऐसी प्रतिक्रियाओ से पटा
पडा है. इन प्रतिक्रियाओं से एक बात तो स्पष्ट है कि लोगो में बहुत
गुस्सा  है. अब लोग अपना विरोध खुल कर प्रदर्शित कर रहे हैं. लेकिन नज़दीक
से देखा जाये तो इन प्रतिक्रियाओं का भी काफी हद तक  राजनीतिकरण हो चुका
है. यद्यपि सभी लोग बलात्कार के खिलाफ हैं लेकिन बलात्कार में भी उनकी
संवेदनाये बंटी हुयी है. आजकल मीडिया में होने वाली चर्चा और बहस का असर
लोगो की सोच पर भी देखने को मिल रहा है. अफ़सोस की बात यह है की
प्रतिक्रियाओं की इस भीड़ और बहस बाजी में वो मुद्दा ही कहीं पीछे छूट गया
है या लगभग गुम हो गया है.
कुछ लोग बिना तर्क के अपने प्रिय राजनेता या अपनी पसंदीदा राजनैतिक
पार्टी के प्रवक्ताओ की तरह उनकी बातो और तर्कों को दोहराते नज़र आते हैं,
तो कुछ तथाकथित लेखक और विचारक अपने आप को स्थापित करने के उद्देश्य से
आग में घी डालते नज़र आते हैं. यद्यपि उनके विचारो में भी किसी व्यक्ति या
विचारधारा के प्रति राजनैतिक प्रतिबद्धता की गंध सूंघी जा सकती है.
देश में बढ़ती बलात्कार की घटनाएँ चिंता का विषय है. इसका दूसरा पक्ष यह
भी है की अब लोग जागरूक हुए हैं जिसके परिणाम स्वरूप जहाँ पहले बदनामी और
सामाजिक प्रतिष्ठा की आड़ में इन प्रकरणों को घर की चार दीवारी में दबा
दिया जाता था वहीं अब लोग खुलकर सामने आने लगे हैं. शिकायते और आपराधिक
प्रकरण दर्ज कराये जा रहे हैं. लेकिन हर प्रकरण को उतनी सहानुभूति, उतनी
संवेदना, और उतनी गंभीरता नहीं मिलती. कुछेक प्रकरण जो मीडिया में उछाले
जाते हैं उन्ही के प्रति विरोध व्यक्त करते देखा जाता है. कभी सोचा है कि
ऐसा क्यों? क्योकि इन प्रकरणों में राजनीतिक पहलु या लोग शामिल हो जाते
हैं और मीडिया भी ऐसे ही प्रकरणों को तवज्जों देता है. शेष अनगिनत प्रकरण
गुमनामियो में खो जाते हैं और लोग सुख की नींद सोते रहते हैं. लोगो की
भावनाओ को रेडीमेड संदेशो के ज़रिये भी कुछ लोग अपने पक्ष में कर लेते
हैं.
मेरे आलेख का विषय यह नहीं है कि कौन क्या प्रतिक्रिया दे रहा है और कौन
सही है कौन गलत ? मेरी चिंता इस बात को लेकर है कि जब इतने संवेदनशील
विषयों का राजनीतिकरण हो जाता है तब वह मुद्दा निश्चित रूप से अपने विषय
से भटक जाता है. मुद्दों को उनके मूल रूप में देख पाने की हमारी क्षमता
प्रभावित हो जाती है और हम कब प्रचार/ दुष्प्रचार तंत्र का हिस्सा बनकर
अलग अलग धडो में बंट जाते हैं पता ही नहीं चलता.
चाहे कश्मीर से कन्याकुमारी तक देश का कोई भी हिस्सा हो, बेटी  किसी भी
मज़हब और वर्ण की हो….  जो हो रहा है वो बेहद शर्मनाक है… बेहद खतरनाक
है. महिलाओ और बच्चो के प्रति होने वाली हिंसा में बढ़ोतरी हो रही है. वो
चाहे छेडछाड के मामले हो या दुष्कर्म के.
ऐसा क्यों हो रहा है? जब तक समस्या के मूल में नहीं जायेंगे तब तक समस्या
का समाधान भी मिलना मुश्किल होगा. यह भी समझना होगा की बलात्कार या औरतो
पर यौन अत्याचार प्राचीन काल से होते आ रहे हैं. हमने इतिहास की किताबो
में पढ़ा है की राजा और नवाब अपनी शक्ति प्रदर्शन और अपनी जीत के लिए
शत्रु पक्ष की औरतो पर कब्ज़ा कर लेते थे. स्त्रियों को भी वस्तु की तरह
संपत्ति माना गया. जो अधिक ताकतवर होगा संपत्ति को हथिया लेगा. यद्यपि
हर धर्म में औरतो की इज्ज़त करना उनका सम्मान करना ही सही माना गया है.
परन्तु यह भी सही है की औरतो की स्थिति आज भी अच्छी नहीं है. आज भी दोयम
दर्जे का समझा जाता है औरतो को. औरतो के प्रति सदियों से पीढियों को
हस्तांतरित की जा रही पुरुष मानसिकता में कथनी और करनी का अंतर स्पष्ट
अनुभव किया जा सकता है. लेकिन आशाजनक यह है कि इस परिस्थिति में बदलाव आ
रहा है. जिसका परिणाम है कि ऐसे अपराधो को अंजाम देने वालो की संख्या
तुलनात्मक रूप से कम है इन प्रकरणों को अमानवीय मानने वालो की तुलना में.
हम बात कर रहे हैं बच्चियों के प्रति होने वाले यौन अपराधो की. इन अपराधो
के क्या कारण है? बहुत चर्चा और चिंतन कीजिये वही जेंडर के मुद्दे सामने
आयेंगे. विकास के इस दौर में भी स्त्रियों को सेक्स ऑब्जेक्ट समझा जाता
है, ऐसे  लोगो का मानना है की औरते उनकी यौन इच्छाओं की पूर्ती का साधन
हैं. फिर वह औरत कोई भी हो चाहे कोई छोटी बच्ची, कोई युवती या कोई प्रौढ़ा
ही क्यों न हो. दूसरी आम धारणा यह है कि यौन इच्छाओं की पूर्ती के लिए
महिला ही आवश्यक है. अपनी यौन इच्छाओ को नियंत्रित करना तो कभी सिखाया ही
नहीं सेक्स एजुकेशन की बात आये तो भी हम चुप हो जाते हैं. ये भी नहीं
सिखाया कि अपनी कामवासना को अंजाम देने के लिए किसी मासूम बच्ची या औरत
के साथ जबरन सम्बन्ध बनाना गुनाह है..न केवल क़ानून की दृष्टि से अपितु
मानवता की दृष्टि से भी.
ऐसे पुरुष जो बलात्कार करते हैं वे विकृत मानसिकता वाले होते हैं. अपने
अहम्, अपने पुरुषत्व और अपनी शक्ति के प्रदर्शन या संतुष्टि के लिए
उन्हें बलात्कार के अतिरिक्त कुछ नहीं सूझता. सच यह भी है की ये लोग
डरपोक होते हैं. कमज़ोर पर ताकत आजमा कर अपने आप को ताकतवर और प्रभावशाली
मानने लगते फ़िर बच्चे तो सबसे कमज़ोर शिकार होते हैं. वो बहुत मासूम होते
हैं इसलिए ऐसे शातिर अपराधियों के इरादों को भांप नहीं पाते. दूसरा
उन्हें डरना धमकाना और काबू करना आसान होता है. शारीरिक और मानसिक रूप से
कमज़ोर इन मासूम बच्चो पर ज़ोर आजमाइश करने वाले ये कायर और डरपोक लोग अकसर
बलात्कार के बाद कई बार उनकी हत्या भी कर देते हैं ताकि किसी को कुछ पता
न चल सके. बलात्कार कई बार क्रोध, दुश्मनी और नीचा दिखाने के लिए भी किया
जाता है.
एक बार ये भी सोचिये कि ये अपराधी हैं कौन? कहाँ से आते हैं?
बहुत आश्चर्य होगा ये जानकर कि ये अपराधी हमारे बीच, हमारे घरो और हमारे
समाज में ही हैं. हो सकता है ये रोज़ आपकी नज़र के सामने हो और आप उसे
पहचान न पाए. ये बच्चो के परिवार के सदस्य, मित्र, रिश्तेदार, पडोसी या
परिचित भी हो सकते हैं या कोई अजनबी भी.
बच्चो को बहला फुसला कर आसानी से अपने गंदे इरादों को अंजाम देने के लिए
निकृष्टतम व्यवहार करने वाले ये अपराधी भोले और मासूम चेहरे लिए हमारे
बीच ही होते हैं. इनका कोई मज़हब नहीं होता, इनकी कोई जाती नहीं होती. ये
रसूखदार भी हो सकते हैं और कमज़ोर भी.
आखिर किया क्या जाये… बलात्कार सिर्फ एक घृणित अपराध माना जाए.. उसको
किसी भी तरह से जस्टीफ़ाइड नहीं किया जा सकता. बलात्कारी किसी भी राजनैतिक
दल से ही क्यों न हो उसके प्रति कोई सद्भावना न दिखाई जाये, उसको संरक्षण
नही दिया जाये. आज जनता यह अपेक्षा करती है की उनके लीडर्स जो कहते हैं
वो कर के अभी दिखाएँ. कथनी और करनी का अंतर अब बर्दाश्त नहीं होगा. जनता
को भी यह समझना होगा कि हमारी प्रतिक्रिया हमारे दिल की आवाज़ होना चाहिए,
किसी के थोपे हुए विचार या शब्द नहीं. हम जाने अनजाने किसी राजनैतिक
मुहिम का हिस्सा तो नहीं बन रहे? यह सही है कि न्याय और कानून व्यवस्था
को बनाये रखने की ज़िम्मेदारी शासन प्रशासन की है. लेकिन यह भी सही है
क्या हमारा दायित्व ये नहीं कि हम ऐसे हर एक प्रकरण पर सामान रूप से अपना
क्रोध और अपना विरोध और अपनी भावनाए निष्पक्ष होकर अभिव्यक्त करें ताकि
शासन प्रशासन पर सतत रूप से दबाव बना रहे और उन्हें अपने दायित्व
इमानदारी से निभाने पर मजबूर किया जा सके?
कुछ प्रतिक्रियाएं तो बहुत बचकानी प्रतीत हो रही हैं. जैसे किसी ने लिखा
कि “जो स्वयं परिवार और संतान विहीन है वह इस पीड़ा को महसूस नहीं कर
सकते”. ऐसा नहीं है, ये थोपे गए शब्द और विचार हमें यह भी नहीं सोचने
देते की जिन लोगो ने बलाकार किया उनमे से बहुत से लोग स्वयं शादीशुदा और
कई बच्चो के पिता भी है. कुछ बलात्कार के प्रकरणों में तो पिता ही दोषी
पाए गए…. संवेदनशीलता किसी की जागीर नहीं है. यदि ऐसा होता तो आज मदर
टेरेसा, मदर टेरेसा न होती.
बहुत सी प्रतिक्रियाओं में धर्म का बंटवारा नज़र आता है तो बहुत सी
प्रतिक्रियाओं में सरकारों के कार्यकाल के अपराध की तुलना की जा रही है.
सरकार किसी की भी क्यों न हो… प्रत्येक बलात्कार समाज के लिए कलंक है.
ऐसे संवेदनशील प्रकरणों में धर्म जाति और सत्ता को दूर रख कर समीक्षा और
कार्यवाही हो सिर्फ और सिर्फ़ यही एक न्यायोचित उपाय है.
तथाकथित सामाजिक संगठन, मीडिया, लेखको और राजनैतिक संगठनो को भी आईने में
अपना चेहरा ज़रूर देखना चाहिए. क्या वे वास्तव में इमानदार प्रयास कर रहे
हैं? क्या वे सामान और निष्पक्ष रूप से अपना कार्य कर रहे है इस दिशा
में?
आम जनता बहुत कुछ कर सकती है… सबसे पहले तो अपने परिवार में पुरुषो को,
बेटो को ऐसे मूल्य और संस्कार दीजिये की वे औरत को सम्मान और बराबर का हक
दे सकें. पुरुष की वास्तविक शक्ति  वास्तविक पुरुषत्व स्त्री के शरीर पर
काबू करने में नहीं बल्कि उसके मन को जीतने में है. स्त्री को सम्मान,
सुरक्षा और बराबरी का हक देने वाले पुरुषो का महिलाये दिल से आदर करती
हैं. बच्चो को समय रहते आगाह भी करें. सतर्क रहें कि कहीं कुछ गलत तो
नहीं हो रहा उनके साथ. अपराधी मुठ्ठी भर है… इतना भी मुश्किल नहीं है
कि उनपर भी कार्यवाही न की जा सके.
न्याय व्यवस्था में भी ज़रूरी मरम्मत की जानी चाहिए. हैवानियत के जुर्म पर
इंसानियत का नजरिया क्यूँ? भय बिन प्रीत नहीं होती. क्या कानून का भय और
लिहाज़ ख़त्म हो रहा है? क्या हमारी न्यायिक व्यवस्था में प्रक्रियागत और
कानूनी ऐसे दांव पेंच के लिए जगह ज्यादा है कि अपराधियों को उनके वकील
आसानी से बचा ले जाते है या इतनी कम सज़ा होती है जो लोगो के दिल में खौफ
पैदा नहीं करती ताकि वो ऐसा जुर्म न करें ?
मुख्य बात… बलात्कार सिर्फ जघन्य अमानवीय अपराध है, बलात्कारी सिर्फ एक
बलात्कारी है, अपराधी है, और पीडिता सिर्फ पीडिता है. न्याय सबके लिए
सामान होना चाहिए सिर्फ अदालत में नहीं, बल्कि हमारी प्रतिक्रिया, कानून
की प्रक्रिया, शासन की जवाबदारी और समाज की ज़िम्मेदारी में भी.

सविता ठाकुर,

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