राष्ट्रीय

दोगलों की बस्ती…

 

 (शैलेश तिवारी)

 

उसके बूढ़े अनुभवी हाथों ने गड्डे की मिट्टी बाहर निकाली। फिर बात करने लगा पास रखे नीम के पौधे से.. समझे भाई, अब मिलेगी आपको जगह अपनी जड़ों को ज्यादा फैलाने की। हवा के झोंके से लहराया पौधा भी मानों खुशी से झूम उठा। पौधे को गड्डे मे उतार कर उसके आसपास मिट्टी जमाई। गौमूत्र मिला कर बनाया गया अमृत जल सींचते हुए “चिरंजीवी भव ” का भाव उसके मन मे आया। कुछ दूर एक पाइप के लिए भी गड्ढा बनाया। ईंट पत्थर के टुकड़े भरकर उसे भी पौधे के पास ही प्रतिष्ठित कर दिया। किसानों के बेकार हुए पाइप का यह उपयोग उसे वन विभाग के एक अधिकारी दीपक साहब ने बताया था कि ऐसा करने से नीचे जड़ों तक पानी बेहतर तरीके से पहुँच जाता है। यहीं से उसके ख्यालातों की नदी गुनगुनाने लगी… शुरू मे यही दीपक रस्तोगी ने बतोर रेंजर उसके हाथ मे अर्थदंड का नोटिस थमाया था। पांच सौ रुपये का अर्थदंड भरने के लिए भी उसके पास पैसे नही थे। उसे याद आया पैसे उसके पास होते भी कहाँ से?? मजदूरी कर अपना और कमली का पेट पालते पालते कब उसे वन विभाग की सरकारी जमीन पर पौधे रोपने का शौक लग गया मालूम ही नहीं पड़ा। गाँव के ही उन लोगों ने वन विभाग के बीट प्रभारी को उसके खिलाफ भड़का दिया। जो बीट प्रभारी से मिलकर जंगल को खेत बनाने का गोरखधंधा करते थे। सरकार ने भी घोषणा कर दी थी कि जो आदिवासी जिस जमीन पर काबिज है उसे वहाँ के पट्टे दिए जाएंगे। उसकी बिरादरी के सभी लोगों ने जंगल के पेड़ों को अपने रास्ते के कांटे की तरह हटा कर खेत बना दिया। उसका बंजर भूमि पर पौध रोपण करना उन्हें नागवार गुजरा। जैसे तैसे जुगाड़ कर वह अर्थदंड भरने रेंजर के ऑफिस पहुँचा। वहीं मुलाकात हुई थी दीपक साहब से…। उन्होंने सहज ढंग से पौधरोपण किए जाने की कैफियत को समझा और नोटिस का अर्थदंड खुद जेब से भर दिया। और कह दिया इन पैसों से और पौधे लगाओ। खुशी से आँखों की कोर गीली हो गई। होंठ दुआ बुद्बुदाने लगे। लौट कर अपनी कमली के साथ दुगने उत्साह से लगाए गए पेड़ों के देखरेख करने लगा और पंचायत के सचिव सरपंच सहित वन विभाग के अमले की आर्थिक सहायता के बलबूते कई एकड़ के रकबे मे फैली बंजर जमीन को जंगल मे बदल दिया। सालों की मेहनत पर जंगल के दुश्मन दबंगो की नज़र क्या पड़ी उनकी काली नज़र लग ही गई। रस्तोगी जी की जगह आए नए साहब ने दबंगो के साथ मिलकर उस पर सरकारी जमीन पर अतिक्रमण किए जाने का मामला कायम कर लिया। और जमीन से बेदखली का नोटिस थमा दिया। गाँव मे उसके पास झोंपड़ी भी नहीं थी। निसंतान आदिवासी दम्पति ने संतान की तरह परवरिश की थी पेड़ों की। अब दशरथ को ही अपने राम से दूर जाने का वक्त आया।
तब वहाँ से दूर इस जगह की पथरीली जमीन को हरा भरा करने मे जुटा था। आशंका यही थी कि पेड़ लगाओ का नारा लगाने वाले जंगल के दुश्मन वो दोगले उसे यहाँ से भी बेदखल करवा सकते हैं। लेकिन आशाओं से उसका दामन लबरेज था कि कोई बंजर जमीन उसे कहीं दूर से फिर पुकारेगी……।

                                                                                                                                                                       (लेखक वरिष्ठ पत्रकार है)

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