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पूर्णिमा : स्वमेव एक आनंद

 

 

[mkd_highlight background_color=”” color=”red”]मनोज श्रीवास्तव[/mkd_highlight]

 

पूर्णिमा ! स्वमेव एक आनंद है। पूर्ण चंद्र की आभा और समस्त कलाओं से विकसित सोम प्रकृति के समस्त रूपों में अपनी सजस्र धार प्रवाहित कर धरती से आकाश तक सब कुछ शीतल और आनंदित करता है। हमारी सांस्कृतिक परम्परा में त्रि पूर्णिमा को विशेष महत्व दिया जाता है। शरद पूर्णिमा, बुद्ध पूर्णिमा और गुरु पूर्णिमा। सौभाग्य है, कि आज गुरु पूर्णिमा है। और मेरा मन और हृदय अपने उन अनेक गुरुजनों के प्रति कृतज्ञ है। जिन्होंने मुझ मूढ़ मति के ज्ञान चक्षु को अपनी दिव्यता से भासित कर सम्मान दिया है। संसार के तमाम सुख और संपदा के प्राप्त हो जाने के बाद भी जीवन में एक अभिलाषा निरंतर जगी होती है, वह है ज्ञान की अभिलाषा। कभी भी हम स्वयं को पूर्ण नहीं कह सकते, क्योंकि जिस दिन से यह दुराग्रह मन में बैठ जाता है, उसी दिन से हमारा क्षरण प्रारम्भ होता है। अतैव हमारी सामाजिक परंपरा में कहा जाता है, कि हमें जीवन पर्यन्त सीखते रहना चाहिए। हम कभी ज्ञान की सीमा को नहीं लांघ सकते। क्योंकि ज्ञान श्लाघ्य है।
अपने महान गुरुओं को याद करते हुए हमें याद आ जाते हैं, अपने वे गुरु ! जिन्हें हम आदि गुरु कह सकते हैं। गुरुओं का कार्य संसार में आने के वर्षों पश्चात आरंभ होता है, किन्तु माँ हमारी आदि गुरु है, जिसकी शिक्षा हमारे संसार में आने से पूर्व ही प्रारम्भ हो जाती है। हम स्वस्थ और संस्कारवान हों, इसलिए वह अपना चिंतन स्वस्थ रखती है। हमारी पुष्टि के लिए वह वहीं खाद्य ग्रहण करती है, जो हमारे लिए हितकर हैं ना कि स्वयं के लिए। इस प्रकार जन्म के पश्चात से और जीवन पर्यन्त हमारे कल्याण एवं उन्नति के लिए मंगलकामनाएं करती है। स्त्री सदैव ही गुरु है, वह गुरु का वेश नहीं धारण करती, वह जन्मजात गुरु पद की अधिकारिणी है। वह माँ, बहन, पत्नी और मित्र रूप में सदा हितकारिणी होती है। हमारे साथ स्त्री के संबंध परिवर्तित होते हैं। पर मूल रूप में वह स्त्री ही होती है। और उसका कार्य सदा सर्वदा सृष्टि कल्याण के लिए प्रयासरत रहना होता है।पिता कभी कुछ कहते नहीं, जताते नहीं, पर उनके मुख का आह्लाद हमारी उन्नति का परचम होता है, तो हमारी अवनति उनके मुख मंडल पर विषाद बनकर उभर आती है।
आज सोशल मीडिया के दौर में ज्यादा कुछ करने की जहमत नहीं झेलनी पड़ती। इधर का उधर करके कर्तव्यों की इतिश्री मान लेना भी एक नई संस्कृति है। सुबह बिस्तर त्यागने से पूर्व शताधिक शुभकामनाएं और सुविचार आपके गुरु रूप में उपस्थित मिलते हैं। पर भला उनसे क्या हमारा मानस जगमगाता है ? अगर हमारे मन में उन विचारों से कोई अंकुर फूटता, तो प्रेषक की मन:स्थिति भी परिवर्तित होती। पर यहां तो दोहरी धारा प्रवाहमान है। खैर ! मैं तो यह सोचकर व्यथित हूं, कि तमाम स्टीकर, संदेश और प्रणाम से पूजित होने के बाबजूद हम शिक्षकों को आए दिन चाकू कौन घोंप रहा है ? कौन शिष्य है, जो गुरु पूर्णिमा को हमें महिमामंडित करने के बाद अगली परीक्षाओं के दौर तक भयातुर करता है? इक्कीसवीं सदी के विकसित भारत में भ्रष्टाचार और अनैतिकता में लिप्त गैर शैक्षणिक समाज मुझमें बेचारगी क्यों तलाशता है ? कि शायद हम अपने कर्तव्यों को ही जीवन का आधार मान बैठे हैं ! सिर्फ इसलिए। हमने नहीं सिखाया किसी को अनैतिक और अव्यावहारिक बातें, छल, कपट, द्वेष और भ्रष्ट आचरण का व्यवहार। पर समाज में यह सब भी है। तो कोई उसे सीखने सिखाने वाली अवधारणा भी है। इसलिए हमारा एक और कर्तव्य है, कि हम अपने दायित्व में सत् के साथ असत की पहचान भी शामिल करें। जिससे भावी भविष्य विद्या और अविद्या की पहचान में सक्षम हो सके। साथ ही गुरु पद को निर्णायक मान प्राप्त हो।

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