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सीएए पर केंद्र और राज्यों में बढ़ता टकराव

 

(  शैलेश तिवारी  )

सीएए को लेकर देश में विरोध और समर्थन जारी है तो दुनियाँ भर में विरोध के स्वर गूँज रहे हैं। हालांकि इसमें एनआरसी और एनपीए को शामिल मानने या नहीं मानने को लेकर भी भ्रम है। सीएए को लेकर जो विभिन्न कोण बने हैं हम सिलसिलेवार उसको यहाँ उल्लेखित करते हैं, यह जानने के लिए आखिर सच क्या है।

‌नागरिकता संशोधन कानून संसद में पारित हो जाने के बाद इसके समर्थन और विरोध दोनों के स्वर गूंजे। समर्थन पक्ष का कहना है कि विदेशी घुसपेठियों को देश बाहर करने की दिशा में सही कदम है। विरोधी इसको संविधान का उल्लंघन बताकर न केवल प्रदर्शन कर रहे हैं वरन उच्चतम न्यायालय सहित कुछ उच्च न्यायालय में याचिका भी दर्ज कर चुके हैं। विरोध के स्वर अधिकांशतः स्वस्फुर्त हैं तो समर्थन की रैलियों को प्रायोजित किया जा रहा है। और इन प्रायोजित रैलियों ने विरोध के स्वर और मुखर कर दिए। ‌राजनैतिक विश्लेषक इस कानून को भारत के संघीय ढांचे को टकराव के नजरिये से भी देख रहे हैं। खासकर जब केरल, पंजाब, राजस्थान और अब पश्चिम बंगाल की राज्य की विधानसभाओ ने इसको अपने राज्य में लागू नहीं करने का फैसला किया है। इसी तरह का फैसला और अन्य राज्य भी लेंगे। जिन राज्यों में भाजपा की सरकार नहीं हैं वहाँ पर भी इसको लागू करने से इंकार किया जाएगा। यह भी लगभग तय सा दिखाई दे रहा है। केंद्र और राज्य की यह टकराव की स्थिति देश को किस दिशा में ले जाएगी? यह भी एक विचारणीय बिंदु है।

‌दूसरा टकराव खुद एन डी ए में भी दिखाई देने लगा है, जो इस समय केंद्र की सत्ता पर काबिज है। जैसे नितीश कुमार बिहार में, नवीन पटनायक उडीसा में लागू नही करने के संकेत दे चुके हैं। तो असम में अगप एन आर सी में चिंहित घुसपैठियों को बाहर निकलवाने की राह पर है तो भाजपा इनमें से हिंदुओं को नागरिकता देने की बात सीएए के तहत देने का रास्ता अख्तियार कर चुकी है। वहीं अकाली दल ने इसमें मुस्लिमों को शामिल किये जाने की मांग करते हुए दिल्ली विधानसभा चुनावों से दूरी बना ली है। टकराव की इन संभावनाओं से एन डी ए के पास खोने के सिवा कुछ और नहीं रह जाता है।

‌इसी तरह मालद्विप , टर्की आदि भारत समर्थित देश जब इस कानून का विरोध दर्ज कराते हैं तब सरकार वजाए इन्हें सफाई देकर अपने पक्ष में बनाये रखने के, उल्टे उनसे व्यापारिक करारों को खत्म करने का निर्णय लेकर टकराव को पुख्ता कर देती है। अब यूरोपीय संसद ने भी सीएए को लेकर इसके विरोध में एक मसौदा तैयार कर पटल पर रखने की तैयारी कर ली है। कहना न होगा की वहाँ भी विरोध में प्रस्ताव पारित होने की संभावनाओं के दरवाजे खुल चुके हैं। हमारी सरकार ने इस को भारत का आंतरिक मामला बताया है। लेकिन इससे टकराव तो बढ़ेगा। हमारे प्रधानमंत्री ने बीते पांच सालों में जो साख विदेशों में बनाई थी उस पर भी बट्टा लगने की संभावना बलवती होती नजर आ रही है। चौतरफा टकराव का यह रास्ता हमारे देश को किस दिशा की तरफ ले जा रहा है। इस पर सरकार को भी विचार करना चाहिए। राज्य और केंद्र के रिश्तों में कढवाहट हमारे संघीय ढांचे के लिए सुखद तो नहीं कही जा सकती। खुद एन डी ए में टकराव की स्थिति को तो राजनीति की तात्कालिक जरूरत के नजरिये से देखा जा सकता है लेकिन वैश्विक स्तर की टकराहट देश की सेहत के लिए ठीक नहीं कही जा सकती।

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